वड़वानल
ऐसा कितने साल चलेगा? जनवरी
का महीना खत्म होते–होते वह अभी भी बेचैन हो जाता है और फिर पूरे
महीने वह ऐसे रहता है मानो पूरी तरह विध्वस्त हो चुका हो । सदा चमकती आँखों की आभा
और मुख पर विद्यमान तेज लुप्त हो जाता है । वह पूरी तरह धराशायी हो जाता है – मन
से और शरीर से भी! जैसे रस निकालने के बाद मशीन से निकला, पिचका
हुआ गन्ना!
जीवन में कई तूफान आते हैं । कुछ आते हैं और थम
जाते हैं । हमारा जीवन–क्रम उसी तरह चलता रहता है, बिलकुल
ठीक–ठाक मगर कोई–कोई
तूफान ऐसा भी होता है जो सब कुछ तहस–नहस कर देता है । अपने बवंडर में हमें
घास–फूस के समान कहीं फेंक देता है और यह पता चलता
है कि हम तो अपने लक्ष्य से दूर फेंक दिये गए हैं । लक्ष्य तक पहुँचने का मार्ग खो
गया है, शक्ति भी चुक गई है ।
वह तूफान भी इसी तरह का था, जो
उसके जीवन में आया था । उसे केन्द्र बनाकर उसके सहयोगियों के इर्द–गिर्द
मँडराता रहा । जब तूफान थम गया तो वह तहस–नहस
हो चुका था । सहयोगी कहाँ फेंके गए,
पता नहीं चला । उन्हें अपने साथ इस
तूफान में घसीटकर क्या प्राप्त हुआ था? उन्हें क्या दे सका था ?
किसलिए छोड़ा था उसने अपना घर ? पिता
का प्रेम––– माँ की ममता ? किसलिए
अपने आप पर उस तूफान को झेला था ?
उसे ऐसा प्रतीत होता कि वह सनसनाते खून
का पागलपन था! उसने अपना कर्तव्य भी नहीं निभाया था। मा फलेषु कदाचन! ये सब
समाप्त होने पर भी वह क्यों झगड़ता रहा? तूफान को आह्वान देने में उसका कोई
स्वार्थ नहीं था । वह समय की आवश्यकता थी । उद्देश्य की ओर पहुँचने का मार्ग था ।
स्वतन्त्रता के पुजारियों द्वारा प्रज्वलित की
गई यज्ञाग्नि उसे पुकार रही थी। वह
पागल की तरह
उस ओर लपका । दामन में
अंगारे बाँध लिये, दावानल
उत्पन्न करने के लिए ।
उसे और उसके
सहयोगियों को इस
बात का एहसास
था कि शायद वे इस दावानल में भस्म
हो जाएँगे, फिर भी उन्होंने उस आग को दामन में बाँध लिया, असिधाराव्रत
स्वीकार करते हुए । वे स्वतन्त्रता की सुबह की एक छोटी–सी
किरण बनना चाहते थे ।
स्वतन्त्रता की सुबह
का स्वागत करना
था और इसीलिए उन्होंने
विद्रोह किया था । सरकार
अथवा इतिहास भले
ही इसे बलवा कह
लें, उनकी नजर
में तो वह स्वतन्त्रता–संग्राम ही
था! वड़वानल था!
साधारण सैनिकों को यदि स्वतन्त्रता युद्ध का
आह्वान करके अपने साथ लाना हो तो
उसके लिए कारण
भी वैसा ही
सर्वस्पर्शी होना आवश्यक
है । सन् 1857 के
स्वतन्त्रता संग्राम का
कारण था कारतूसों
पर लगाई गई
चर्बी, उसी तरह इस
बार विद्रोह किया
गया घटिया खाने
और अपमानजनक, दूसरे
दर्जे के व्यवहार के कारण, जो उनके
साथ किया जाता
था ।
‘‘यह
विद्रोह अपने स्वार्थ के लिए किया गया, " जब विदेशी सरकार द्वारा किए गए इस प्रचार
का समर्थन अपने, देशी
नेताओं ने भी
किया तब उनके
पैरों तले ज़मीन खिसकने लगी । अपने ध्येय के दीवाने ये सैनिक सम्पूर्ण
नौसेना पर अधिकार करके उसे
जिन नेताओं को
समर्पित करने चले
थे उन्हीं ने
इन्हें ‘विद्रोही’ करार दिया
था ।
जिन्होंने
इस स्वतन्त्रता संग्राम
में भाग लिया
था, उन्हें इस
बात का सन्तोष था कि वे
जी–जान
से लड़े थे!
हारने का दुख
उन्हें कभी हुआ
ही नहीं । उन्हें दुख था तो विश्वासघात का! अपने देशबन्धु
सैनिकों के बलिदान को भूल जाने का!
आजादी के बाद
जन्मे, अंग्रेज़ों के
पक्ष में मिल गए लोग
भी गले में
ताम्रपट लटकाए घूम रहे
थे मगर आजाद
हिन्द सेना के
सैनिकों को और
अंग्रेजों के विरुद्ध बगावत कर रहे
नौसैनिकों को सभी
भूल चुके थे ।
‘बचकाना’ क्रान्ति
कहकर उन्हें मुँह चिढ़ा
रहे थे । उसे
और उसके मित्रों
को सुविधाओं की
खैरात नहीं चाहिए थी ।
उन्हें चाहिए था
न्याय । उन्हें चाहिए
थी मानवता की
आर्द्रता । पेन्शन का दान उन्हें नहीं चाहिए था । उनके भीतर
हिम्मत थी, कुछ कर गुजरने का साहस था; स्वतन्त्र
मातृभूमि की सेवा
करने की,
स्वतन्त्र भारत के नौसैनिक के रूप
में जीने की
चाहत थी!
आजादी
के पश्चात् सरदार
पटेल ने लोकसभा
में घोषणा की - ‘‘बगावत
में शरीक होने के
आरोप में जिन
नौसैनिकों को नौकरी
से निकाल दिया
गया है, उन्हें फिर
से बहाल किया जाएगा ।’’ उसे
अच्छा लगा, राजनीतिक
नेताओं पर उसने भरोसा किया । बड़े जोश से सारे सुबूत इकट्ठे किए और INS आंग्रे गया
।
आंग्रे के द्वार में कदम रखते ही पुरानी यादें
जाग गर्इं । बदन पर रोमांच उठ
आए । वहाँ की मिट्टी को उसने माथे पर लगा लिया । उसके मित्रों ने आजादी की खातिर
खून बहाकर इस मिट्टी को पवित्र किया था ।
उसे आंग्रे के कैप्टेन के सम्मुख खड़ा किया गया
। वह आश्चर्यचकित रह गया । ‘‘विद्रोह करना बेवकूफी है । अंग्रेज़ झुकेंगे
नहीं । हाँ, तुम लोग अवश्य ख़त्म हो जाओगे । सैनिकों को
स्वतन्त्रता वगैरह के झमेले में नहीं पड़ना चाहिए” । ऐसी बिनमाँगी सलाह देनेवाला, अंग्रेजों
की खुशामद करने वालों में सबसे आगे रहने वाला नन्दा, स्वतन्त्र
भारत में कैप्टेन बन गया था और स्वतन्त्रता के लिए बगावत करने वाला सैनिक उसके
सामने खड़ा था मन में यह इच्छा लिये कि वह फिर से नौसेना में सैनिक के रूप में सेवा
करना चाहता है ।
‘‘हूँ!
तो क्या तुम विद्रोह में...’’
‘‘वह
विद्रोह नहीं था । वह स्वतन्त्रता संग्राम था ।’’ उसने
कैप्टेन नन्दा को बीच ही में रोकते हुए आवाज ऊँची की ।
‘‘वही
तो! तुम उसमें थे और तुम दुबारा नौसेना में आना चाहते हो, हाँ
?’’
नन्दा ने छद्मपूर्वक हँसते हुए कहा, नन्दा
नहीं चाहता था कि उसे पहचान लिया जाए । गुरु खामोश खड़ा था ।
‘‘सॉरी!
तुम जिसके बारे में कह रहे हो, वैसा कोई आदेश हमारे पास आया नहीं है ।’’
‘‘मगर
गृहमन्त्री ने लोकसभा में ऐसा...’’
‘‘होगा
मगर वह आदेश नौसेना के मुख्यालय में तो आना चाहिए ना ? ऐसा
करो, तुम अपनी अर्जी और सारी जानकारी यहाँ छोड़ जाओ ।
तुम्हें बाद में सूचना दे दी जाएगी ।’’ कैप्टेन ने उसे टरकाते हुए अपनी कुर्सी
घुमाकर उसकी ओर पीठ कर ली ।
वह आंग्रे से बाहर आया और जवाब का इन्तजार करने
लगा । आंग्रे के अनेक चक्कर लगाए,
मगर जवाब हर बार एक ही मिलता, ‘‘अभी
कुछ आया नहीं है ।’’
तंग आकर उसने गृह मन्त्रालय को ख़त लिखा । ऐसा
लगा मानो गृह मन्त्रालय में काम होता है । पन्द्रह दिनों के बाद खाकी रंग का
लिफाफा हाथ में आया । उसके चेहरे पर समाधान तैर गया । किसी ने उसकी ख़बर तो ली थी ।
प्रसन्नतापूर्वक उसने लिफाफा खोला । लिफाफे के
ही समान जवाब भी सरकारी निकला ।
‘‘आपका
पत्र अगली कार्रवाई के लिए रक्षा मन्त्रालय की ओर भेजा गया है ।’’
वह रक्षा मन्त्रालय के जवाब का इन्तजार करने
लगा । दिन बीते, महीने गुजरे, सालों–साल
गुजरते गए मगर उसकी प्रतीक्षा खत्म न हुई । रक्षा मन्त्रालय और गृह मन्त्रालय को
उसने अनेकों ख़त लिखे । शुरू में तो प्राप्ति–स्वीकृति
आ जाया करती थी, मगर धीरे–धीरे
वह भी बन्द हो गई ।
वह समझ गया । शासन के नये वारिसों को इन
क्रान्तिकारी सैनिकों की जरूरत नहीं थी । इन विद्रोहियों को दुबारा नौकरी देकर वे
अपने दामन में अंगारे नहीं रखना चाहते थे ।
अब वह पूरी तरह टूट गया । जिस ध्येय की खातिर
उसने इतने कष्ट उठाए थे, इतनी दौड़धूप की थी, वह
अब कभी भी पूरा होने वाला नहीं था । बची हुई जिन्दगी निराशा के गर्त में ही समाप्त
होने वाली थी । क्या चाहता था वह ?
सत्ता ? वैभव
? मान–मर्यादा ? उसे
इसमें से किसी भी चीज की ख्वाहिश नहीं थी । उसने एक छोटा–सा
सपना देखा था । एक बढ़िया नौसैनिक बनने का, जन्मजात
खलासी! सच्चा Salt water sailor.
बड़े चाव से ‘सिंदबाद
का सफ़र’ पढ़ा
था बचपन में, उसके पीछे पिता की मार भी खाई थी, इसी
‘सफ़रनामे’ से जो अंकुर फूटा था वह उम्र के साथ–साथ
बढ़ता रहा और एक दिन पिता के विरोध की परवाह न करते हुए वह नौसेना में भर्ती हो गया
।
दूसरा महायुद्ध पूरे जोर पर था । हजारों सिपाही
मारे जा रहे थे । उनके स्थान पर अंग्रेजों को नये सैनिकों की जरूरत तो थी ही ।
भर्ती के नियम काफ़ी शिथिल कर दिए गए । गुरु को नौसेना में प्रवेश प्राप्त करने में
कोई मुश्किल नहीं आई । वह रॉयल इण्डियन नेवल शिप (RINS)
‘तलवार’ में
टेलीग्राफिस्ट के प्रशिक्षण के लिए दाखिल हुआ ।
‘‘Come on, Pick up your Kit bags.’’ गोरा
पेट्टी अफ़सर
चीखा ।
नये रंगरूट घबरा गए । उनमें से कइयों से वह
भारी–भरकम किट बैग उठ नहीं रहा था । गुरु ने किसी
तरह किट बैग पीठ पर लटकाया और पैरों को घसीटते हुए सबके साथ–साथ
चलने लगा ।
‘‘Come
on bloody Pigs, don't dance like dames, Walk like soldiers.’’ गोरा पेट्टी अफ़सर चिल्लाए जा रहा था ।
ऐसा
लग रहा था
कि वह नितंबों
पर लात भी
मारेगा ।
फर्लांग
भर की दूरी
पार करते–करते वह
पसीने–पसीने
हो गया । जहाज़
के गैंग वे के सामने किट बैग
रखकर उसने राहत
की साँस ली ।
तब कहीं ध्यान आया
कि भूख लगी
है । सुबह से
एक कप चाय
के अलावा कुछ
और पेट में नहीं
गया था । मगर सुबह की
चाय की याद
से मतली आने
लगी । क्या चाय थी! बस, सिर्फ
पानी!
‘‘जहाज़ पर
जाकर भरपेट भोजन
करूँगा और लम्बी
तान दूँगा,’’
उसने निश्चय किया ।
जहाज़
पर उन्हें तीन पंक्तियों में खड़ा किया गया । उनके साथ आए हुए पेट्टी अफसर
ने उन्हें जहाज़ के पेट्टी अफसर के हवाले
किया । हाथ की छड़ी मार–मारकर
हरेक की नाप
ली गई । गुरु
के मन में
सन्देह उठा,
‘‘हम
सैनिक हैं या कैदी ?’’
Keep your kit bags here and go for a grab, you hungry
dogs. want you here after fifteen minutes. जहाज़ वाला पेट्टी
अफसर चिल्लाया ।
किट
बैग वहाँ रखना
है, यह बात
तो समझ में
आ गई, मगर
कहाँ और किसलिए जाना है ये कोई भी
समझ नहीं पाया । सभी एक–दूसरे का मुँह देखने लगे । यह
देखकर पेट्टी अफसर
फिर से गरजा - You bloody pigs, go and eat,
come on, move!’’
खाने
का नाम सुनते
ही पेट में
कौए काँव–काँव करने
लगे । वे खाने
की मेज की ओर
भागे ।
उस
विशाल मेज के
एक किनारे पर
सिल्वर के बड़े
भगोने में चने
की दाल थी और एक टोकरी में सूखे
हुए पाव के टुकड़े थे । दाल पर जो लाल–लाल तेल तैर रहा
था उसकी तेज
गन्ध आँखों में
पानी ला रही
थी ।
उन्होंने
अपनी प्लेट में
दाल डाली । दाल
में डुबाकर पाव
के टुकड़े का पहला ग्रास मुँह में जाते ही मानो आग लग गई, जबान
जल गई, माँ की याद आ गई और आँखों
में पानी आ
गया ।
जल्दबाजी
में ट्रेनिंग पूरी
करके गुरु और
उसके बैच के
सैनिक बाहर निकले । अब
वाकई में एक नये, साहसपूर्ण
जीवन का आरम्भ
होने वाला था ।
पूरी दुनिया में
घूमने का मौका
मिलने वाला था ।
नीले–नीले
समुद्र का आह्वान
स्वीकार करने वाले थे
वे । गुरु के
मन के किसी
कोने में छिपा
हुआ सिंदबाद अपनी
सफेद दाढ़ी सहलाते हुए
कह रहा था - Bravo, आगे बढ़ो!
अब अपने कर्तृत्व
को असीम सागर की तरह फैलने
दो । आने वाले
तूफानों से घबराना
नहीं, मैं तुम्हारे पीछे हूँ!’’
गुरु, दास तथा अन्य सात–आठ
लोगों को HMIS क्लाईव
नामक माईन स्वीपर पर
जाना था । हिन्दुस्तान में
अंग्रेजों की सत्ता
स्थिर करने में
महत्त्वपूर्ण योगदान देने वाले गवर्नर के सम्मान में इस जहाज़ को ‘क्लाईव’ का
नाम दिया गया था और
इसे हिन्दुस्तान के
सागर तट की सुरक्षा
के लिए तैनात
किया गया था । क्लाईव वैसे कोई बड़ा
जहाज़ नहीं। उसका वजन चार हजार टन, लम्बाई तीन सौ फुट; चार विमानरोधी तोपें उस पर तैनात थीं, जो
उसकी सुरक्षा करती थीं । शत्रु द्वारा पानी में बिछाई गई जल–सुरंगें
ढूँढ़कर उन्हें बेकार कर देना और पानी में सुरंगें बिछाना ‘क्लाईव’ का
प्रमुख कार्य था । साथ ही अन्य जहाजों के समान
गश्त भी लगानी
पड़ती थी ।
क्लाईव
पर प्रवेश करने
से पूर्व रात
को गुरु धर्मवीर
से कह रहा
था, ‘‘अब
हम लोग सैनिक हो गए हैं । प्रशिक्षण काल की दौड़धूप समाप्त हो जाएगी । जहाज़ पर जीवन
अधिक सुखमय होगा । अधिक सुविधाएँ
प्राप्त होंगी, खाना
अच्छा होगा । गोरे अफसरों
का व्यवहार भी
सुहृदयतापूर्ण होगा ।
धर्मवीर
ने हँसकर जवाब
दिया, ‘‘गलतफहमी में
न रहना! परसों
ही मेरे गाँव का
रामपाल मिला था ।
वह क्लाईव पर
था ना! वह
बता रहा था
कि जहाज़ पर भी आराम की जिन्दगी
नहीं है, वहाँ भी काले–गोरे
का भेदभाव है । वहाँ भी गोरों को जो
सिगरेट का पैकेट
पाँच आने में
मिलता है, उसके
लिए हमें दस आने देने पड़ते हैं । मक्खन, चीज, फलों
के डिब्बे आदि चीजें गोरे पार कर लेते हैं । हमारे हिस्से में ये सब आता ही नहीं
है ।’’
‘क्लाईव’ पर
पहुँचने के बाद
गुरु को धर्मवीर
की बात सच
प्रतीत हुई । ‘क्लाईव’ पर
हिन्दुस्तानी सैनिकों की
मेस - उनके निवास की
जगह - डेक की बेस पर
बने इंजनरूम के
ऊपर बोट्स वाइन
स्टोर से लगी
हुई थी । इंजिन
के शोर से कानों
के परदे फट
जाते और सिर
दर्द करने लगता ।
स्टोर से सटे
होने के कारण सड़ी
हुई बदबू से
जी हमेशा मिचलाता
रहता । सेलिंग के वक्त
इस सड़ी हुई
बदबू में उल्टियों
की बू भी शामिल
हो जाती । "Upper deck is out of bound for natives.''
जहाज़
में प्रवेश करते
ही एक गोरे
लीडिंग सीमेन ने
सूचना दी, ‘‘यदि
तुममें से एक भी सैनिक अपर डेक पर दिखाई दिया तो कड़ी सजा दी जाएगी ।’’ उसकी
आवाज़ में हेकड़ी थी ।
उस
दिन मेस में
लगा हुआ शुद्ध
हवा का ब्लोअर
बन्द था । दोपहर से मेस
में बैठे मिश्रा
को यूँ लग
रहा था जैसे प्रेशर कुकर
में बैठा हो ।
ऊपरी डेक पर जाकर
ताज़ा हवा खाने
की इच्छा अनिवार
हो गई । उसे
बेचैन देखकर एक पुराने
हो
चुके लीडिंग सीमेन
ने सलाह दी, ‘‘अरे, थोड़ी
देर ऊपरी डेक
पर ताजा हवा में
साँस ले अच्छा
लगेगा ।’’
‘‘मगर अपर
डेक तो Out of bound है
ना ?’’
''F...it
यार, हम जाकर
बैठेंगे । अगर कोई
कुछ कहेगा तो
दयनीय चेहरा बनाकर माफी
माँग लेंगे । नीचे
आयेंगे और थोड़ी
देर बाद फिर
नजर बचाकर वापस ऊपर
जाएँगे ।’’
बेचैन
मिश्रा हिम्मत करके
अपर डेक पर गया
। एक
कोने में सबकी
नज़र बचाते हुए बैठा
रहा । खुली हवा
में उसे थोड़ा
ठीक लग रहा
था ।
''Hey,
you! Don't you know, this deck is out of bound for natives?'' एक
गोरा चीफ मिश्रा पर चिल्लाया ।
‘मेस
में बहुत गर्मी हो रही है और आज तो ब्लोअर भी बन्द ...’’ घबराए
हुए मिश्रा ने
जवाब दिया ।
‘बकवास बन्द ! Go to your mess.’’
‘‘प्लीज़
चीफ...’’
''Nothing doing. Go to your mess.''
‘‘अरे, इतनी
गर्मी लग रही
है तो पानी
में कूद जा, ठण्डा–ठण्डा है ।’’ दूर खड़ा
होकर सुन रहा
दूसरा गोरा चीफ़ पेट्टी
अफसर मिश्रा को
सलाह देने लगा ।
‘‘देखो, अगर
तेरी हिम्मत नहीं
हो रही हो, तो
मैं फेंकता हूँ
तुझे पानी में । सारी
गर्मी ख़त्म हो
जाएगी। हमेशा के
लिए ठण्डे हो
जाओगे । ठीक है ना, चीफ रॉड्रिक ?’’
‘‘क्या बात
है चीफ़, किसे
पानी में फेंकने
वाले हैं ?’’ जहाज़
पर हाल ही में आए ले. नाईट
ने पूछा।
‘इस
हिन्दुस्तानी खलासी को, सर, इसे
कब से कह
रहे हैं कि
ये डेक तुम्हारे लिए नहीं
है, मगर ये
सुनता ही नहीं,’’ चीफ
रॉड्रिक ने शिकायत के सुर
में कह रहा था ।
‘‘इसलिए तुम
इसे पानी में
फेंकोगे ?’’
‘‘हम सचमुच
थोड़े ही उसे
पानी में फेंकने
वाले थे, और
मान लीजिए अगर फेंक
भी दें तो
क्या बिगड़ने
वाला है ? पाँच
रुपये फेंको तो
नया रंगरूट मिल जाएगा, इससे तगड़ा ।’’ रॉड्रिक
ने जवाब दिया ।
‘‘बेवकूफ
की तरह बकबक मत करो, वह भी तुम्हारे ही जैसा इन्सान है, खुली
हवा की जरूरत होगी, इसलिए ऊपर
आया होगा ।’’
रॉयल
इण्डियन नेवी में
उँगलियों पर गिने
जाने वाले अफसरों
में, जिन्हें
हिन्दुस्तानी सैनिकों के
प्रति सहानुभूति थी, उन्हीं
में से एक
ले. नाईट थे ।
‘‘मगर सर
ये डेक हिन्दुस्तानी–––’’
''All right, I will See to it. you may go now.'
ले. नाईट
ने मिश्रा को
अपने निकट बुलाया
और समझाते हुए
बोला, ''Look my dear, हम
सैनिक हैं । सीनियर्स
की आज्ञा का, बिना
सवाल पूछे, पालन
करना हमारा कर्तव्य है ।’’
‘‘मगर सर, मेस
में बहुत ज्यादा
गर्मी हो रही है। इसके
अलावा ब्लोअर भी बन्द
है । मुझे बस
और पाँच मिनट...’’ मिश्रा
विनती करते हुए
कह रहा था
‘‘ठीक है ।
नाम क्या है
तुम्हारा ?’’ अगले पाँच–दस मिनट वह
मिश्रा के बारे में
पूछताछ करता रहा ।
कैप्टेन के हुक्म
का उल्लंघन न
करते हुए उसने
मिश्रा को डेक पर
रहने दिया ।
उस
दिन गुरु ने
मुम्बई बेस से
आए हुए दो
सन्देश देखे और
उसका माथा ठनका। पहला
सन्देश था -
''Ten
officers arriving by Bombay Central Mail. Request arrange reception.''
दूसरा
सन्देश था -
''Five
Ratings despatched by train.''
‘कहते
हैं Ratings Despatched - अरे डिस्पैच
करने के लिए
सैनिक यानी कोई निर्जीव
चीज है क्या ? और
रेटिंग्ज के स्थान
पर क्या वे
सेलर्स अथवा सोल्जर्स नहीं कह सकते ?’’ गुरु
मिश्रा से पूछ रहा था । उसके शब्दों से गुस्सा टपक रहा था ।
‘‘इतने
परेशान न हो । नये हो । बहुत कुछ सहन करना होगा । बहुत कुछ समझना होगा ।
Muster by open list याद
करो ।’’
हर
तीन महीनों में
जहाजों पर और
बेस पर Muster by open list होती
थी । गुरु को
ट्रेनिंग के दौरान
लिये गए Muster by open list की याद आई ।
31
दिसम्बर का दिन था । बेस के सारे सैनिक Muster by open list की तैयारी
कर रहे थे
। बैरेक में
हर सैनिक शीशे
के सामने खड़ा
होकर चीफ द्वारा कल सिखाई गई कसरत
की प्रैक्टिस कर रहा था । आईने से पूछ रहा था.
‘‘Am I dressed correctly?’’ और यूँ
ही अपनी कैप
ठीकठाक कर रहा था
। कैप के
रिबन पर यदि ‘ब्लैको’ का
तिल जितना दाग
भी पड़ा हो
तो उसे थूक लगाकर
साफ कर रहा
था । जूते साफ
कर रहा था ।
हरेक के मन में एक ही डर था -
चीफ या
डिवीजन अफसर कोई
गलती न निकाल
दे, वरना भूखे
पेट, पैर
टूटने तक परेड
ग्राउण्ड के चक्कर
लगाने पड़ेंगे ।
आठ के घण्टे पर 'Clear
lower decks' का आदेश हुआ और सैनिक परेड ग्राउण्ड पर
इकट्ठे हो गए। 'muster by open list' आरम्भ हो गई ।
‘‘ऑफिशियल
नम्बर 5986 ।’’
‘‘ऑफिशियल नम्बर 5987’’
डिवीजन पेट्टी
अफसर एक–एक नंबर
पुकार रहा था । बुलाया गया
सैनिक आगे आता ।
डिवीजन ऑफिसर के
सामने खड़ा होता । सैल्यूट करके
बाएँ हाथ में
आइडेन्टिटी कार्ड पकड़कर
आगे पकड़कर अपना
नाम, ऑफिशियल
नम्बर रैंक, मांसाहारी है अथवा शाकाहारी, यह बता रहा था, डिवीजन ऑफिसर अपने हाथ की लिस्ट से मिलान करके
उस पर ये जानकारी सही होने का निशान बनाता । यदि कोई सैनिक जवाब देते हुए लड़खड़ाता, सीधा
न खड़ा होता, उसका
सैल्यूट गलत हो
जाता या जानकारी
देने का क्रम
गलत हो जाता तो
डिवीजन ऑफिसर गुस्सा
होता । शिकारी भेड़िये
जैसा ताक में
बैठा गोरा नेवल पुलिस
वापस लौटने वाले
सैनिक को बुलाकर
कहता - ''Two rounds of the Parade
Ground.''
इस
दण्ड के पीछे
बस ‘नेवल पुलिस
की इच्छा’ होती
थी ।
गुरु
को इस पूरी
हरकत पर बहुत
गुस्सा आ रहा
था ।
‘ये
सब किसलिए ? क्या हम कैदी हैं ?’’ वह
अपने आपसे ही सवाल पूछ रहा था ।
‘‘हिन्दुस्तानी
सैनिकों को उनकी गुलामी की याद दिलाने के लिए या गुलामों के दिलों पर अपना
श्रेष्ठत्व थोपने के लिए ?’’
“तुझे
याद है, तूने एक हिन्दुस्तानी चीफ से पूछा था ? उसका
जवाब सही लगा था तुझे ? बोला था वह कि अपने सैनिकों का डिवीजन ऑफिसर से
परिचय हो जाए, इसलिए ये सारा नाटक, अरे, परिचय
होना चाहिए दिलों से । मगर ये गोरे ऐसा कभी करते ही नहीं।” मिश्रा गुस्से से कह
रहा था ।
‘क्लाईव’ पर
दो साल युद्ध की दौड़–धूप में ही गुजरे । कभी व्यापारी जहाजों के
बेड़े के सुरक्षा दल के साथ जाना पड़ता, कभी बन्दरगाह की सुरक्षा के लिए
बन्दरगाह के मुहाने पर सुरंग बिछानी पड़ती, तो
कभी जल–सुरंग निकालने का काम करना पड़ता । लाल सागर से
सुदूर बंगाल की खाड़ी तक जहाजों का आवागमन हमेशा जारी रहता । र्इंधन, पानी, खाद्यान्न
सभी की आपूर्ति समुद्र में ही की जाती थी ।
कभी–कभी छोटी–मोटी
दुरुस्ती के लिए जहाज़ एकाध दिन के लिए
बन्दरगाह में आता तो सभी त्योहार जैसा आनन्द मनाते । हरेक सैनिक अधिकाधिक समय बाहर
गुजारने की कोशिश करता, रोज–रोज उन्हीं चेहरों को देख–देखकर
उकताए हुए सैनिक नयनसुख लूटते, फ्लीट–क्लब
का बार गूँज उठता, तवायफें परेशान हो जातीं, मगर
खूब पैसा कमाकर ले जातीं । कल के दिन का भरोसा न करने वाले सैनिक हाथ आए दिन का एक–एक
क्षण पूरा–पूरा भोगते और इन्हीं क्षणों की यादों में
समुद्र के आगामी दिन गुजारते ।
दोपहर को तीन बजे रेडक्रॉस से भेजी गई भेंट
वस्तुएँ फॉक्सल पर बाँटी जाने वाली थीं । मुफ्त में मिलने वाली इन चीजों के लिए
काफ़ी
सैनिक फॉक्सल पर इकट्ठा हो गए । गुरु और मिश्रा भी
फॉक्सल पर आए ।
‘‘यहाँ
तो सिर्फ हिन्दुस्तानी सैनिक हैं । गोरे सिपाही...’’ गुरु
मिश्रा से पूछ रहा था - ‘‘वे क्यों आएँगे यहाँ ? उनके
पैकेट उनके मेस में पहुँचा दिये गए होंगे ।’’
फॉक्सल पर गहमागहमी का वातावरण था । क्या–क्या
चीजें हो सकती हैं, हमें किस चीज की जरूरत है, इस
बात पर चर्चा हो रही थी ।
''I want pin drop silence. Come on., Sit down in a
single line." चीफ रॉड्रिक
चिल्ला रहा था । वह अपने साथ भेंट वस्तुओं का एक बोरा लाया था ।
चीफ के चिल्लाने से फॉक्सल पर थोड़ी–बहुत
खामोशी हुई । मगर हर कोई आगे आने की कोशिश कर रहा था।
''You bloody beggars sit down first...'' गालियाँ देते हुए वह सैनिकों को शान्त करने की
कोशिश कर रहा था।
''Hey you! Come on sit down here.'' गुरु और मिश्रा की ओर देखते हुए चीफ चिल्लाया
- ‘‘हमें नहीं चाहिए वे चीजें ।’’
''Then get lost from here.''
गुरु और मिश्रा उसकी नजर बचाकर वहीं मँडराते
रहे, सैनिकों के शान्त हो जाने के बाद चीफ ने अपने
साथ आए सिपाहियों की सहायता से वितरण आरम्भ किया, पोस्टकार्ड्स
पुराने ताशों की गड्डियाँ, टूथ पेस्ट, ब्रश, बूट
पॉलिश ऐसी छोटी–छोटी चीजें बाँटी गर्इं ।
‘‘दे
दान, छुटे गिरान!’’ गुरु
के कानों में शब्द गूँज रहे थे ।
गुरु के तबादले का आदेश आया और गुरु खुश हो गया, रोज–रोज
की सेलिंग, कबूतरख़ाने जैसी मेस, शुद्ध
हवा के भी लाले, अपर्याप्त भोजन, रोज–रोज
वे ही खरबूजे जैसे चेहरे और वही उकताहटभरी बातचीत । ये सब अब खत्म होने वाला था, जी
भर के खुली हवा का आनन्द मिलने वाला था । देश में क्या चल रहा है इसकी जानकारी
मिलने वाली थी । कोचिन के HMIS वेंदूरथी में जाने को मिलेगा इसलिए गुरु खुश था
।
नया जोश और खुली हवा में जीने की अदम्य इच्छा
लिये गुरु ने वेंदूरथी पर प्रवेश किया । मगर तलवार और वेंदुरथी के हालात में जरा
भी फर्क नहीं था । नये भर्ती हुए रंगरूटों के रेले के सामने पुरानी बैरेक्स
अपर्याप्त प्रतीत हो रही थीं । नये बैरेक्स का निर्माण हो नहीं रहा था ।
परिणामस्वरूप बैरेक्स के बाहर भी पास–पास खाटें बिछाई गई थीं । दो खाटों के
बीच इतनी कम जगह थी कि पैर लटकाकर एक–दूसरे के सामने बैठना भी सम्भव नहीं था
। पपड़ी पड़ी बैरेक की दीवारें ऐसी लगतीं जैसे किसी कुष्ठ रोगी का चेहरा हो । बाथरूम, शौचालय
भी अपर्याप्त थे और वे बदहाल थे । हाँ, ‘ऑफ
वाच’ होने पर शहर में खूब घूम–फिर
सकते थे ।
‘‘एक
तार भेजने के लिए मैं गोरों की बैरेक में गया था,’’ गुरु
यादव से कह रहा था - ‘‘क्या ठाठ हैं रे उनके! हर डॉर्मेटरी में बस चार–चार
कॉट्स । हर कॉट के पास साढ़े चार फुट की अलमारी । कॉट्स के बीच में इतनी खाली जगह
कि आराम से कबड्डी खेल लो । चारों के लिए एक मेज़, चार
कुर्सियाँ, एक छोटा–सा
रेडियो, दीवारों पर सफेद रंग और खूबसूरत प्राकृतिक
दृश्य, सुन्दर औरतों की तस्वीरें भी थीं । मज़ा है
उनकी!’’
‘‘अरे, तूने
उनकी रिक्रीएशन रूम तो देखी ही नहीं है । कैरेम बोर्ड है, अखबार
आते हैं, पत्रिकाएँ होती हैं । हर बैरेक के सामने हरा–भरा
लॉन । लॉन के किनारे रंग–बिरंगे फूलों की क्यारियाँ । बड़ा प्रसन्न
वातावरण होता है ।’’ गोरों की बैरेक्स का उत्साह से वर्णन करने वाला
यादव रुक गया । उसके चेहरे के भावों में अचानक परिवर्तन हुआ और चिढ़कर वह आगे बोला, ‘‘तुझे
मालूम है, बैरेक का सफ़ेद रंग, सामने
वाली लॉन, फूलों की क्यारियाँ - ये सब हिन्दुस्तानी
सिपाहियों की मेहनत से ही बनाया गया है । मरें हम और लुत्फ उठाएँ ये गोरे।’’
‘‘उसके
लिए अच्छी किस्मत लानी पड़ती है,’’
गुरु ने कहा।
‘‘गलत
कह रहे हो । किस्मत बनानी पड़ती है और यह हमारे हाथों में है । अरे, अगर
हम सब एक होकर थूक भी दें तो ये सारे अंग्रेज उस थूक के सैलाब में बह जाएँगे । मगर
इसके लिए हमें एकजुट होना पड़ेगा ।’’
भरे–पूरे, सुदृढ़
शरीर का यादव गुरु से दो–एक साल बड़ा था और सीनियर था । गुरु स्वभाव से
आक्रामक प्रवृत्ति का था । वेंदुरथी पर छोटे–से
आक्रामक गुट का वह नेता भी था ।
‘‘हिन्दुस्तानी
सैनिक ब्रिटिश सैनिकों से किस बात में कम हैं ?’’ यादव
पूछ रहा था । ‘‘हम उनसे बढ़कर ही हैं । बिना थके बीस–बीस
मील तक मार्च कर सकते हैं, हमारे गनर्स का निशाना अचूक होता है, यह
कई बार सिद्ध हो चुका है । हमारे कम्युनिकेटर्स उनके जैसे ही कार्यकुशल हैं । फिर
गोरे सैनिकों और हिन्दुस्तानी सैनिकों के वेतन में फर्क क्यों है ? सुविधाओं
में अन्तर क्यों ? हमारे साथ गुलामों जैसा बर्ताव क्यों किया जाता
है ?’’ यादव गुस्से से लाल हो रहा था ।
गुरु, यादव और उनके समान संवेदनशील दोस्तों
के मन का असन्तोष बढ़ता जा रहा था । उनकी नजरों में अन्याय के विरुद्ध विद्रोह करने
वाले स्वतन्त्रता प्रेमी नौजवान तैर रहे थे । उनके जिस्म पर पड़े लाठियों के निशान, छाती
पर झेली गई गोलियाँ इन संवेदनशील सैनिकों को बेचैन कर रहे थे ।
‘‘क्या
इस समाज के प्रति, देश के प्रति हमारा कोई कर्त्तव्य नहीं ? कितने
दिन हम यह सब बर्दाश्त करेंगे ?
अंग्रेजों के हाथ मजबूत करना क्या देश
के प्रति गद्दारी नहीं है ?’’ जैसे गुरु के मन के सवाल ही यादव के मुख से फूट
रहे थे ।
‘‘हम
नौसैनिक हैं । हमने जानबूझ कर अपनी निष्ठा महारानी को समर्पित की है–––’’ उसे शपथ–परेड
की याद आ गई ।
मगर विद्रोही मन पूछ रहा था, ‘‘कौन
महारानी ? उससे सम्बन्ध क्या है ? मेरे
देश को, मेरे देशवासियों को पैरों तले दबाकर रखने वाली
महारानी से मुझे कुछ लेना–देना नहीं है ।’’
दोनों के मन में अब एक ही सवाल था । ‘इस
तरह, नपुंसक बनकर हम कितने दिन खामोश रहेंगे ?’
महायुद्ध की गड़बड़ थी । सैनिकों को चौबीसों
घण्टे कहीं भी जाने के लिए तैयार रहना पड़ता था । कभी–कभी
कुछ दिनों के लिए कॉम्बेट एक्सरसाइज के लिए तो कभी–कभी
बदली पर । कॉम्बेट एक्सरसाइज करना जान पर आता था । पैरों में भारी–भारी
एंक्लेट शूज, पीठ पर हैबर सैक, सिर
पर हेलमेट और कन्धे पर पन्द्रह पाउण्ड की बन्दूक उठाए दिन–रात
चलाया जाता था । लड़ाई की रंगीन तालीम की जाती । कॉम्बेट में गोरे सैनिक हुआ करते
थे, हवाई दल और नौदल के सैनिक भी होते ।
''Hey, You Able seaman, Come here'' नया–नया कमिशन्ड और कॉम्बेट एक्सरसाइज की
एक प्लेटून का प्रमुख लेफ्टिनेंट जोगिन्दर एक गोरे नौसैनिक को बुला रहा था ।
‘‘येस’’ गोरा
एबल सीमेन, जोसेफ, जोगिन्दर
के पास आकर अकड़ से बोला।
'Have
you Seen me?''
''Yes''.
''Then why don't you Salute me?'
जोसेफ की हँसी में व्यंग्य छिपाए नहीं छिप रहा
था ।
''Don't laugh. Answer me.'' जोगिन्दर की आवाज ऊँची हो गई थी ।
''Don't
Shout. You know, you have received viceroy Commission and I am not Supposed to
Salute you. Don't expect it from me. Go to bloody natives. They
will salute you.'' और जोसेफ
लापरवाही से वहाँ से निकल
गया ।
‘‘ये
अधिकारी इस अपमान को बर्दाश्त क्यों करते हैं ?’’ गुरु
अपने आप से पूछ रहा था
। ‘‘क्या पैदल
सेना और हवाई
सेना में भी
ऐसा ही होता
है ?’’
गुरु की WT Office में
चार से आठ
बजे की ड्यूटी
थी । लगातार मेसेज
आ रहे थे । हाथ निरन्तर चल रहे थे । एक प्रवाह था सन्देशों का । सारे मेसेज
कोड ड्रेस – सांकेतिक-आँकड़ों का जंजाल, यदि
एक भी आँकड़ा
बदल जाए अथवा गलत
हो जाए तो
अर्थ का अनर्थ
हो जाता । ऐसा
लगता कि लिखते–लिखते हाथों की
उँगलियाँ टूट जाएँगी, आँकड़े
दिमाग को लिबलिबा
कर देते, डिड
और डा के अलावा
कुछ और सुनाई
ही नहीं देता ।
‘‘ड्यूटी
खतम करके सुबह सात बजे तक लम्बी तानूँगा,’’ उकताया हुआ गुरु सोच
रहा था ।
‘‘गुरु, you are transferred to
Calcutta.'' गुरु की
वॉच का राठोड़
बतला रहा था । ‘‘रात
को दस बजे
एर्नाकुलम स्टेशन पर
जाना है ।’’
''Don't Joke.'' गुरु को
विश्वास ही नहीं
हो रहा था ।
''By God.
ये देख, अभी–अभी
मेसेज डीस्क्रिप्ट किया
है । तू अकेला
ही नहीं, अच्छे–खासे
पच्चीस लोग हैं ।’’
गुरु
के लिए यह
खबर अनपेक्षित थी ।
‘‘कलकत्ता
जाना यानी तीन दिन का सफर––– ड्यूटी खत्म होते ही तैयारी करनी पड़ेगी... धोबी से कपड़े... राव
को दिये हुए
जूते... बेल्ट वापस
करना है...’’
मन
ही मन कामों
की गिनती हो
रही थी । ‘‘सिर्फ दो
घण्टे हैं... इतने
सारे काम...भूल जा
बेटा आराम और
नींद के बारे
में ।’’
उसे
याद आया, अलमारी
में सिर्फ बारह
आने हैं । मन
ही मन उसने
नौसेना और महायुद्ध को
गालियाँ दे डालीं ।
सेना के तीनों दलों के सैनिकों से प्लेटफॉर्म
खचाखच भरा था । इनमें अधिकांश हरे
खाकी रंग की
वर्दियों वाले पैदल
सैनिक थे । हवाई दल
और नौदल के
सैनिकों की संख्या अपेक्षाकृत कम थी । पैदल सैनिक अपनी–अपनी
रेजिमेन्ट के अनुसार फॉलिन हो गए
थे । मगर नौदल
और हवाई दल
के सैनिक झुण्डों
में खड़े थे ।
''You bloody Indian fools, Come on get in Fallin hurry
up'' एक गोरा अधिकारी चिल्लाया ।
सारे सैनिक फॉलिन हो गए ।
''Right turn, double march, speed up, up your knees.'' गोरी लीडिंग ने उनका चार्ज सँभाल लिया ।
स्टेशन पर आए हुए गोरे सैनिक, गोरे
सिविलियन्स, उनकी मैडमें उनकी ओर देखकर हँस रहे थे । बीच–बीच
में कोई चिल्ला देता, ''Come on Speed up, Dress up''.
मगर गोरे सैनिक आजादी से पूरे स्टेशन पर हँसते–खिलखिलाते
हुए घूम–फिर रहे थे । गुरु शर्म से मरने–मरने
को हो गया ।
गाड़ी प्लेटफॉर्म पर आई और जिस तरह गुड़ के डले
से चींटे चिपकते हैं उसी तरह सैनिक कम्पार्टमेंट से चिपक गए । हालाँकि ये मिलिट्री
स्पेशल थी, फिर भी उसमें डिब्बे कम और सिपाही ज्यादा होंगे
इस बात को लोग समझ रहे थे । हरेक की यही कोशिश थी कि कम से कम बैठने के लायक जगह
तो मिले ।
हिन्दुस्तानी सैनिकों के लिए पचास सीटों वाला
एक कम्पार्टमेंट आरक्षित था, मगर उनकी संख्या सौ से ज्यादा थी । सारे सैनिक
भेड़ों के समान डिब्बे में घुस गए । गुरु ने फुर्ती से काम लिया और खिड़की के निकट
की सीट हथिया ली । अब कलकत्ता तक कम से कम बैठकर तो जाया जा सकता था ।
‘‘क्या
अगले कम्पार्टमेंट में जगह है ?’’
बाहर प्लेटफॉर्म पर घूम रहे सैनिक से
अन्दर सिकुड़कर बैठा सिपाही पूछ रहा था ।
‘‘अगले
पाँच डिब्बों में खूब जगह है, मगर वे सभी गोरों के लिए आरक्षित हैं । साले
दरवाजे के पास भी आने नहीं देते ।’’
‘‘अरे, वे
डिब्बे क्या बढ़िया हैं! इण्टर क्लास के हैं, पंखे
हैं, नरम–नरम गद्दे हैं । मजा है सालों की!’’ दूसरे
लोग ईर्ष्या से बोले ।
‘‘उनकी
गाँ––– फूली–फूली, लाल–लाल
इसलिए उन्हें नर्म–नर्म सीट हम काले, हमारी
गाँ––– छुहारों जैसी, झुर्रियों
वाली, चमड़ी निकल जाए तो भी परवाह नहीं, इसलिए
हमें लकड़ी की बेंचें!’’ पहले ने समझाते हुए कहा ।
गाड़ी चलने लगी और कम्पार्टमेंट में सिपाही एडजस्ट
हो गए । सिगरेटें सुलग उठीं ताश की बाजी शुरू हो गई । हलके–फुलके
मजाक होने लगे । वातावरण का तनाव खत्म हुआ । सैनिक सिरों पर मँडराते महायुद्ध के
काले बादलों के बारे में भूल गए गुरु
को इस सबमें
दिलचस्पी नहीं थी ।
वह एकटक खिड़की
से बाहर देख रहा
था । बाहर अँधेरा
गहराता जा रहा
था । गुरु ने
डिब्बे के अन्दर
नजर दौड़ाई । अधिकांश
सैनिकों को वह
जानता था ।
सामने बैठा हुआ दुबला–पतला, काला–कलूटा, तीखे
नाक–नक्श वाला दत्त गुरु
को हमेशा रहस्यमय
प्रतीत होता, उसकी
आँखों में दृढ़
निश्चय की चमक थी
। गुरु
को उसके बारे
में हमेशा जिज्ञासा
रहती थी । इस
जिज्ञासा के कारण ही वह
उससे युद्ध, अंग्रेज़ी हुकूमत, रूसी
क्रान्ति आदि विविध
विषयों पर बातचीत किया करता था । उसके अंतरंग को जाने का प्रयत्न
करता । मगर उसके अथाह मन
की टोह लगती
ही नहीं थी ।
ऐसा लगता मानो
घुप अँधेरे में
घुस गए हों ।
‘‘क्या
रे ? तबियत ठीक नहीं है क्या ?’’ गुरु
ने दत्त से पूछा, ‘‘नहीं, ऐसी कोई
बात नहीं । मैं
ठीक हूँ ।’’
दत्त ने
बाहर देखते हुए
जवाब दिया ।
‘‘फिर
चेहरा क्यों उतरा हुआ है ? क्या सोच रहे हो ?’’
‘‘कहाँ भेज रहे हैं हमें ?’’ चेहरे
के भावों में परिवर्तन लाए
बिना दत्त ने
पूछा ।
‘‘कलकत्ता...’’
‘‘फिर वहाँ
से ?’’
‘‘मालूम
नहीं, मगर शायद
सीमा पर...’’
‘‘मतलब, हमें
लड़ना होगा ?’’
‘‘बेशक
।’’
‘‘हम क्यों
लड़ें ? किसलिए
?’’
दत्त
ने फिर अपनी
नजर बाहर की
ओर घुमा ली ।
वह मानो नियति
से ही सवाल पूछ रहा था
। गुरु
समझ गया कि
दत्त का सवाल
इतना सीधा और आसान
नहीं है । ‘हम
सैनिक हैं । लड़ना
हमारा कर्त्तव्य है ।’ इस
जवाब को उसने होठों
से बाहर नहीं
आने दिया और
सोच में डूबे
दत्त के चेहरे
की ओर देखता रहा ।
‘‘हिन्दुस्तान पर
किसी ने हमला
किया है ? क्या सीमा पर
कोई ख़तरा है ? नहीं ना ? फिर
हम क्यों लड़ें ? शायद हिटलर कल...कल की बात कल... आज
क्यों लड़ें हम ?’’ दत्त
पुटपुटा रहा था ।
शायद
मैं कुछ ज्यादा
ही कह गया, यह
सोचकर दत्त चुप
हो गया और खिड़की
से बाहर देखने
लगा ।
गाड़ी
की गति अब
तेज हो गई थी
। दत्त
की अस्पष्ट बातों
पर गुरु विचार कर रहा था - ‘‘हम
पर तो किसी ने हमला किया नहीं है,
मगर दुनिया पर छाया हुआ फासिज़्म का संकट––– क्या
पहले अपने जलते हुए घर की रक्षा करनी चाहिए...जिसने हमारा घर जलाया है, जला
रहा है उसकी बातों पर विश्वास करके–––’’
कुछ देर के लिए वह स्वयं को भूल गया । कोचीन से
कलकत्ताµपूरे चार दिनों का सफर, कब
खत्म होगा यही सब सोच रहे थे । महीने के अन्तिम दिन थे, इसलिए
जेब में पैसे बहुत कम कलकत्ता से आगे कहाँ जाना है, तनख्वाह
कब और कहाँ मिलेगी - इस बात की कोई जानकारी नहीं । बस अँधेरा ही अँधेरा । मिलिट्री
स्पेशल पूरे वेग से अँधेरे को चीरती हुई जा रही थी । हर चार घण्टे बाद वह कोयला और
पानी लेने के लिए स्टेशन पर
रुकती और लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती । हर डिब्बे
में ठूँस–ठूँसकर भरे हुए सिपाही यूँ बाहर आते जैसे फटे
हुए बोरे से अनाज के दाने फिसल रहे हों । कोई पैर सीधे करने के लिए उतरता तो कोई
पानी का इन्तजाम करने के लिए ।
''Come on you punks, out with mugs'' पाव के टुकड़े बाँटने आया गोरा अधिकारी डिब्बे
के सामने खड़ा होकर चिल्ला रहा था ।
रातभर के भूखे सैनिक अपने–अपने
मग्ज़ लेकर डिब्बे से बाहर आए ।
''you
greedy fools, get back, Come in Que! Every body will get his ration .'' अनुशासनहीन सैनिकों पर वह अधिकारी चीख रहा था ।
गुरु और दत्त यह सब देख रहे थे ।
‘‘पेट
की आग इन्सान को कितना लाचार बना देती है, देखा
?’’ गुरु दत्त से कह रहा था ।
‘‘ये
केवल भूख नहीं है, डेढ़ सौ सालों की गुलामी से खून में घुल गई
लाचारी है । इन सैनिकों को अपनी गुलामी का एहसास दिलाना पड़ेगा । तभी ये विद्रोह पर
उतारू हो जाएँगे ।’’ दत्त फिर अपने आप से पुटपुटाया ।
‘‘सफर
के इन चार दिनों में गोरे सैनिक अपने डिब्बों से बाहर आए ही नहीं । उनका सारा
इन्तजाम कम्पार्टमेंट्स में ही किया गया है । पिछले स्टेशन पर ये सारे गोरे लोग
भोजन के लिए बाहर गए थे । कोचीन से चलते समय उन्हें भत्ता और आठ दिन की तनख्वाह दी
गई है । हमें क्या दिया गया ? और क्या दिया जा रहा है ? बासी
ब्रेड के टुकड़े और बेस्वाद चाय का पानी ।’’
मिलिट्री स्पेशल कलकत्ता पहुँची, तब
रात के आठ बज चुके थे । शुद्ध कालीन ब्लैक आउट के कारण कृष्णपक्ष की काली रातें और
अधिक गहरी हो गई थीं । पूरा शहर अँधेरे में डूबा था । रास्ते सुनसान थे । सुनसान
हावड़ा ब्रिज किसी पुराण पुरुष के समान उस अँधेरे में खड़ा था । अँधेरे को चीरती हुई
बीच में ही कोई गाड़ी गुजर जाती । अक्सर आर्मी की गाड़ी ही होती । गुरु ने हावड़ा
स्टेशन पर कदम
रखा और उसका हृदय पुलकित हो उठा । क्रान्तिकारियों की जन्मभूमि कलकत्ता...सुभाष चन्द्र, रवीन्द्रनाथ, सुरेन्द्रनाथ
का कलकत्ता । ऐसा लगा कि यहाँ की धूल माथे से लगा ले; परन्तु साहस नहीं हुआ । अगर कोई देख ले तो ? डर
तो लग रहा था, पर सुभाष बाबू के प्रति हृदय में जो आदर की
भावना थी वह चैन नहीं लेने दे रही थी । जूतों के फीते बाँधने के लिए वह नीचे झुका
और रास्ते की धूल माथे से लगा ली ।
‘‘मैं
सैनिक होते हुए भी पहले हिन्दुस्तानी हूँ । गुलामी की जंजीरों में जकड़े इस देश का
नागरिक हूँ । एक नागरिक होने के कारण इस देश की आजादी के लिए लड़ने का मुझे अधिकार
है ।’’
गुरु के मन में फिर वही प्रश्न उठा, जो
अक्सर उसे सताता था, ‘‘किसके प्रति निष्ठा ज्यादा महत्त्वपूर्ण है ?’’
उसका दिल हुआ कि जोर से चिल्लाए, ‘‘वन्दे
मातरम्! भारत माता की जय!’’ उसने मन ही मन नारा लगाया और...कानों को बहरा
कर देने वाली बन्दूक की आवाज का आभास...
''Hey, You change your step,'' प्लेटून कमाण्डर चिल्लाया । गुरु ने अपना कदम सुधारा, पर
विचार... उसे याद आया...
गाड़ी किसी स्टेशन पर खड़ी थी । अलसाया हुआ गुरु
पैर सीधे करने के लिए नीचे उतरा । पानी पीने के लिए नल के पास पहुँचा । वहाँ खड़े
कुछ नौजवानों में से एक गुरु की ओर देखते हुए बोला, ‘‘हम
लोग सिर पे कफ़न
बाँधकर गोरों की धज्जियाँ उड़ाने चले हैं । नेताजी और
उनकी सेना फिरंगियों का बाहरी मुल्कों में कड़ा मुकाबला कर रही है । लोहिया, आसफ़ अली जैसे नेता
छुप–छुपकर अंग्रेज़ों से लड़ रहे हैं और इन्हें देखो, इसी
मिट्टी के कपूत अंग्रेज़ों से हाथ मिलाकर उनका साथ दे रहे हैं । गद्दार साले!’’ उनकी
नजरों से नजर मिलाने की हिम्मत नहीं हुई गुरु की । वह चीख–चीखकर
कहना चाह रहा था, ‘‘मैं गद्दार नहीं हूँ ।
मैं भी एक हिन्दुस्तानी हूँ । इस मिट्टी से
प्यार है मुझे । मगर मैं शपथ से बँधा हुआ हूँ । मुझे उनकी ओर से लड़ना ही होगा ।’’
इंजन की सीटी सुनाई दी, कानों
को बहरा कर देने वाली और वह होश में आया ।
''Come on you, keep dressing.'' दौड़ते हुए प्लेटून कमाण्डर ने उसकी पीठ पर धौल
जमाकर उसे जगाया ।
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