गुरु के साथ आए नौसैनिकों को कलकत्ता के नौदल
बेस - हुबली पर रखा गया । कराची से मद्रास तक के भिन्न–भिन्न
नौसेना के जहाजों से वहाँ की बेस के सैनिक रोज आ रहे थे ।
‘‘कहाँ
ले जा रहे हैं हमें ? कौन–सा काम दिया जाएगा हमें ?’’ क्लाईव
से आया हुआ मिश्रा गुरु से पूछ रहा था, ‘‘कसाईख़ाने में जैसे मवेशियों को ठूँसा
जाता है, वैसे ही हमें ठूँसा गया है ।’’
‘‘अरे
मवेशियों को तो हलाल करने से पहले बढ़िया खिला–पिलाकर
पाला जाता है । मगर यहाँ हमें न ढंग का खाना, न
ढंग की जगह मिली है रहने के लिए । मगर काम तो भयानक है । सुबह आठ बजे से ठीक शाम
के छह बजे तक । बंदरगाह के मुहाने पर लगाई जाने वाली लोहे के तारों की जालियाँ
बनाना, लोहे की रस्सियाँ बुनना, विविध
साधन–सामग्री की हिफ़ाज़त करना । काम तो खत्म ही नहीं होता ।’’ गुरु
गुस्से से मिश्रा को सुना रहा था ।
उस दिन ड्राय डॉक में खड़े दो छोटे माइन
स्वीपर्स का पुराना रंग खरोच कर उन पर नया रंग लगाने का काम चल रहा था । हुबली आए
हुए सभी नौसैनिक सुबह आठ बजे से खट रहे थे । रंग खुरचते हुए हथौड़े और लोहे को
घिसने की आवाज से कान बहरे हो गए थे । दोपहर के बारह बज चुके थे, मगर
न तो खाने का ट्रक अभी तक आया था,
न ही दस बजे वाली ‘स्टैण्ड
ईजी’- विश्राम
के समय की चाय दी गई थी ।
सामने से आ रहे सब लेफ्टिनेंट चटर्जी को देखकर
गुरु और दत्त के साथ काम करने वाला दास गुरु से बोला, ‘‘वो
देखो, मोहनीश चटर्जी आ रहा है । मेरे ही गाँव का है ।
उससे जाकर कहते हैं कि सुबह से कुछ भी नहीं मिला है । खूब थक गए हैं, अब
थोड़ा विश्राम दो ।’’
‘‘कोई
फायदा नहीं, बिलकुल तेरे गाँव का हो, फिर
भी नही’’, गुरु ने कहा ।
‘‘क्यों
?’’ दास ।
‘‘क्योंकि
वह अफ़सर
है और तुम दास हो!’’ दत्त ।
‘‘मुझे
ऐसा नहीं लगता!’’ दास बोला और उसने आगे बढ़कर चटर्जी से शिकायत की
।
उसकी शिकायत सुनकर असल में उसे गुस्सा आ गया था
। एक काला सिपाही, गाँववाला हुआ तो क्या, शिकायत
करे यही उसे अच्छा नहीं लगा था ।
गुस्से को छिपाते हुए उसने समझाया, ‘‘अरे, ये
लड़ाई चल रही है। इस गड़बड़ी में थोड़ी देर–सवेर हो ही जाती है।’’
‘‘मगर
गोरे सैनिकों को तो सब कुछ–––’’
‘‘यहाँ
साम्राज्य खत्म होने की नौबत आई है और तुम्हें खाना–पीना
सूझ रहा है, हाँ ? युद्ध काल में शिकायत का मतलब है
गद्दारी । दुबारा ऐसी शिकायत लेकर आए तो याद रखना! विद्रोह के आरोप में कैद करके
एक–एक की गाँ…पर
लात मारेंगे ।’’
अपना–सा मुँह लेकर दास वापस आया ।
‘‘अरे, सारे
अधिकारी ऐसे ही हैं, गोरों के तलवे चाटने वाले!’’ दत्त
ने समझाया । गुरु को प्रशिक्षण के दौरान ‘तलवार’ पर
हुई घटना का स्मरण हो आया... ।
चावल में इतने कंकड़ थे कि दाँत गिरने को हो रहे
थे । और उसमें से कीड़े निकालते–निकालते तो घिन आ रही थी । दाल तो ऐसी कि बस!
उसमें दाल का दाना नहीं था, न ही कोई मसाले, मिर्च
इतनी कि बस लाल–लाल नजर आ रहा था । पानी पी–पीकर
वे ग्रास निगल रहे थे । उस दिन का ‘ऑफ़िसर ऑफ़ दी डे’ सब
ले. वीरेन्द्र सिंह राउण्ड पर निकला था, उसे
देखकर गुरु की बगल में बैठा यादव गुरु से बोला, ‘‘क्या
खाना है! ऐसा लग रहा है कि थाली उठाकर राउण्ड पर निकले वीरेन्द्र सिंह के सिर पर
दे मारूँ ।’’
सभी ऐसा ही सोच रहे थे, मगर
कह कोई नहीं रहा था । कमज़ोर और डरपोक मन में विद्रोह के विचार यदि आते भी हैं तो
वे बाहर प्रकट नहीं होते । वहीं पर बुझ जाते हैं ।
‘‘पाँच
साल की नौकरी का करारनामा किया है ना ? जो मिलता है वो खा, दिन–रात
खटता रह और पाँच साल गुजार!’’ बगल में बैठे दूसरे सैनिक ने सलाह दी ।
‘‘नहीं
रे, ये सुनेगा!’’ वीरेन्द्र
सिंह की ओर देखते हुए यादव कह रहा था । वह विश्वासपूर्वक कह रहा था । ‘‘ये
हमारा राजा साब है । रियाया के दुख–दर्द वह देखेगा ही ।’’
साथियों के विरोध की परवाह न करते हुए यादव
वीरेन्द्र सिंह के पास शिकायत करने गया । थाली
उसके सामने पकड़कर यादव शिकायत कर रहा था । वीरेन्द्र के चेहरे के भाव बदलते जा रहे
थे । वह गरजा, ‘‘साले, सुअर की औलाद! कल तक हमारे जूते उठाते
फिरते थे और आज नेवी में भरती हो गए हो तो खुद को लाट साब समझने लगे! जो भी यहाँ
मिल रहा है, चुपचाप खाते रहो, वरना
चू... फाड़ के रख दूँगा!’’
वीरेन्द्र के खून से अंग्रेजों का ईमान बोल रहा
था । पूरी मेस में सन्नाटा छा गया । हाथ का ग्रास हाथ में और मुँह का मुँह में रुक
गया । यादव रोने–रोने को हो गया ।
‘‘क्यों
आए हम यहाँ ? क्या घर में दो जून का खाना नहीं मिलता था
इसलिए ?’’
वास्तविकता तो यह थी कि वह और उसके जैसे अनेक
युवक सेना में भरती हुए थे अंग्रेज़ी सरकार के आह्वान के जवाब में! सरकार का यह
फर्ज़ था कि उन्हें अच्छा खाना दे,
सम्मान का जीवन दे । क्योंकि वे लड़ रहे
थे अंग्रेज़ों के साम्राज्य को बचाने के लिए ।
गुरु का क्रोध बर्दाश्त से बाहर हो गया । खून
मानो जल रहा था । तब भी और अब भी ऐसा लग रहा था कि चटर्जी का गला पकड़ ले । मगर
अपनी ताकत
पर भरोसा नहीं था । ऐसा लग रहा था,
मानो नपुंसक हो गया हो ।
‘‘हम
अंग्रेज़ों की ओर से क्यों लड़ें ?
स्वतन्त्रता संग्राम से गद्दारी क्यों
करें ?’’ दत्त पूछ रहा था ।
‘‘नेशनल
कांग्रेस के नेता सैनिकों की भर्ती का विरोध क्यों नहीं करते ? हिटलर
का कारण क्यों सामने रखते हैं ?
सैनिक देश की आजादी के लिए लड़ सकते हैं; फिर नेता लोग हमें अपने साथ क्यों नहीं लेते ? वासुदेव
बलवन्त फड़के, मंगल पाण्डे सैनिक ही तो थे ना? बलिदान
के लिए सैनिक तैयार हैं, फिर भी 1942 के
आन्दोलन में उन्होंने हमें क्यों साथ नहीं लिया? अगर
वैसा हो जाता तो आज शायद हम अंग्रेज़ों की ओर से युद्ध न कर रहे होते ।’’ गुरु
ने अपने दिल की बात कही ।
कलकत्ता में वातावरण सुलग रहा था । दीवारें
क्रान्ति का आह्वान करने वाले पोस्टरों से सजी थीं । ये पोस्टर्स नेताजी द्वारा
किया गया आह्वान ही थे ।
‘‘गुलामी
का जीवन सबसे बड़ा अभिशाप है। अन्याय और असत्य से समझौता करना सबसे बड़ा अपराध है ।
यदि हमें कुछ पाना है तो कुछ देना भी पड़ेगा । तुम मुझे खून दो, मैं
तुम्हें आज़ादी दूँगा ।’’
‘‘आज़ाद
हिन्द सेना हिन्दुस्तान की दहलीज पर खड़ी है । उसका स्वागत करो । उससे हाथ मिलाओ!’’
कलकत्ता की दीवारों पर लगा हर पोस्टर मन में आग
लगा रहा था । अनेक सैनिक इन पोस्टर्स से मन्त्रमुग्ध हो गए थे । अनेक सैनिक सोच
रहे थे कि अपनी वर्दी उतार फेंकें और स्वतन्त्रता संग्राम में कूद पड़ें । मगर
पैरों में पड़ी बेड़ियाँ बहुत भारी थीं ।
एक दिन सारी अनिश्चितता समाप्त हो गई । रात के
आठ बजे ब्रिटिश नौसेना के एक लैंडिंग क्राफ्ट पर सबको भेजा गया ।
‘आर्या, आर्या’ हुबली
नदी से जहाज़ खींचने वाले कर्ष–पोत की आवाज खामोशी को तोड़ रही थी ।
‘‘स्पीड
फाइव ।’’
‘‘पोर्ट
टेन ।’’
जहाज़ को डायमंड हार्बर तक ले जाने के लिए जहाज़
पर आया हुआ पायलट ऑर्डर दे रहा था । जहाज़ के पंखे ने ज़ोरदार आवाज करते हुए अपने
पीछे पानी का एक बड़ा प्रवाह तैयार किया और जहाज़
कछुए की चाल से आगे बढ़ने लगा ।
‘‘कहाँ
जाने वाले हैं हम ? कितने दिनों का सफर है ?’’ चटर्जी
गुरु से पूछ रहा था ।
‘‘ईश्वर
ही जाने! मगर एक बात सही है कि सफर लम्बा है ।’’ गुरु
‘‘यह
कैसे कह सकते हो ?’’
‘‘देखा
नहीं, दोपहर को जहाज़ पर कितना अनाज चढ़ाया गया? मीठे
पानी के चार बार्ज पोर्ट की ओर और र्इंधन के तीन बार्ज दूसरी ओर थे ।’’
‘‘मुझे
ऐसा लगता है कि हमें युद्धग्रस्त भाग में भेजने वाले हैं। और यह रणभूमि शायद
बर्मा होगी!’’ दत्त अनुमान लगा रहा था। ‘‘सुबह
जहाज़ पर बारूद, टैंक्स, तोप
लगी जीप्स भी लादी गई हैं।’’
हुबली नदी पार करने के पश्चात् जहाज़ ने अपनी दिशा बदल दी । जहाज़ की दिशा को देखते ही सभी समझ गए कि जहाज़ बर्मा की ओर जा रहा है ।
‘‘हमें
बर्मा क्यों ले जा रहे हैं ?’’ मेस में बातें करते हुए यादव ने पूछा ।
‘‘मेरा
ख़याल है कि सरकार की ये एक चाल है ।’’ गुरु समझाने लगा ।
बर्मा में आजाद हिन्द सेना का ज़ोर है । वहाँ
अगर उनके सामने हिन्दुस्तानी सैनिकों को खड़ा कर दिया जाए तो आज़ाद हिन्द सेना के
सिपाही लड़ने से कतराएँगे ।’’
आज़ाद हिन्द सेना का नाम सुनते ही दास के कान
खड़े हो गए और वह बोलने के लिए तत्पर हुआ।
‘‘अरे
बाबा, ऐसा होने को नर्इं सकता’’ वो
अपनी बंगाली हिन्दी में कह रहा था । ‘‘तोम को नाय मालूम परशो सुभाष बाबू बोला
था हॉम हिन्दुस्तान की आजादी लेकॉर ही रहेंगे । अगर हमॉर रास्ता रोकने की किसी ने
भी कोशिश की चाहे फिर ओ हिन्दुस्तानी ही क्यों न हो, उसे
गद्दार समझकर हॉम हॉमारा रास्ते से हटा देंगे ।’’
‘‘मतलब, इसमें
ख़तरा भी है । समझो, अगर यहाँ से गए हुए सैनिकों को कोई आज़ाद हिन्दी
मिल गया और...’’
यादव की कल्पना से गुरु रोमांचित हो गया । उसका
दिल मानो जीवित हो उठा । मेस में आते हुए किसी के पैरों की आहट सुनाई दी और उसने
विषय बदल दिया ।
‘‘मेस
में कितनी गरमी हो रही है! शायद बारिश होगी!’’
‘‘फिर
अपर डेक पर जाकर बैठ ।’’ यादव ।
‘‘अरे
वहाँ हमें कौन जाने देगा ? हमारे लिए तो वो Out of Bound है.”
‘‘अरे, बेशरमी
से जाकर बैठ जाना । भगायेंगे तो नीचे आ जाना । कल रात को तो मैं अपर डेक पर सोया
था...’’
‘‘और
सब ले. रॉजर ने जब लात मारी तो इतना–सा
मुँह लेकर नीचे आ गया ।’’ दास ने फिसलकर हँसते हुए यादव का वाक्य पूरा
किया ।
और उसी दिन दोपहर को सारा आकाश काले बादलों से
घिर गया जैसे असावधान शत्रु पर आक्रमण करने के लिए चारों ओर से असंख्य सैनिक
इकट्ठा हो जाते हैं । बिजली ने रणभेरी बजाई और बारिश शुरू हो गई । बारिश जैसे हाथी
के सूँड़ से गिर रही थी । दस फुट दूर की चीज भी दिखाई नहीं दे रही थी । जहाज़ करीब–करीब रुक ही गया था । बारिश की सहायता
के लिए भूत जैसी चिंघाड़ती हवा भी आ गई । उस विशाल सागर में वह जहाज़ एक तुच्छ वस्तु के समान लहरों के थपेड़े खा रहा
था । सारा सामान अपनी जगह से धड़ाधड़ नीचे गिर रहा था । जहाज़ के हिचकोले लेने से उल्टियाँ कर–करके
आँतें खाली हो गई थीं और मुँह को आ गई थीं । पेट में मानो भारी सीसे का गोला घूम
रहा था । पूरी मेस डेक उल्टियों से गन्दी हो गई थी ।
‘‘ये
सब कब खत्म होगा ?’’ मेस डेक में निढाल पड़ा रामन पूछ रहा था ।
‘‘होगा
। ख़त्म होगा । ये संकट भी ख़त्म हो जाएगा...’’ गुरु
‘‘कब ? सब
की बलि लेकर ? इससे तो मुकाबला भी नहीं कर सकते ।’’ रामन
कराहा ।
‘यदि
सारे सैनिक ब्रिटिशों के अत्याचारों से इसी तरह परेशान हो गए तो क्या वे ब्रिटिशों
के विरुद्ध खड़े होंगे?’ उस परिस्थिति में भी गुरु के मन में
आशा की किरण फूटी ।
हवा के ज़ोर के आगे इंजन लाचार हो गया । जहाज़
हवा के साथ भटकने लगा । कैप्टेन ने परिस्थिति की गम्भीरता का मूल्यांकन करते हुए
आगे के दो लंगरों के साथ शीट एंकर (बड़ा लंगर) भी पानी में डाल दिया । मगर
जहाज़ स्थिर नहीं हो सका ।
सात घंटे बाद हवा का तांडव खत्म हुआ और लोगों
की जान में जान आई । ब्रिज पर अधिकारियों की भीड़ जमा हो गई । नक्शे फैलाए गए, तारों
का अवलोकन किया गया, स्थान–दिशा
निश्चित की गई और नये जोश से जहाज़ आगे चल
पड़ा ।
‘‘अपने
सिरों पर लादकर हमने दूध के, फलों के, मटन
के डिब्बे जहाज़ के स्टोर में पहुँचाए । मगर आज तक उनमें से एक भी चीज हमें नहीं
मिली ।’’
सूखे–सूखे फड़फड़े चावल पर रसम् डालते हुए
यादव बड़बड़ाया ।
‘‘अरे
बाबा, वो सब गोरों के लिए हैं । तुम्हारे–हमारे
लिए नाश्ते में बासी ब्रेड के टुकड़े और नेवी ब्रांड पनीली चाय। दोपहर को यह बॉयल्ड
राइस का भात और इंडियन सूप अर्थात् रसम् और रात को फिर ब्रेड और कम आलू ज़्यादा
पानी की सब्जी ।’’ दास ने जवाब दिया ।
‘‘गोरे
लड़ने वाले हैं ना ? इसलिए उन्हें हर रोज मटन, फल–––’’ गुरु ।
‘‘अरे
तो क्या हम उनके कपड़ों की निगरानी करने वाले हैं? मालूम
है कि लड़ाई हो रही है, पंचपकवान नहीं माँगते, मगर
खाने लायक और पेटभर खाना तो मिले!’’
यादव पुटपुटाया और गुस्से में उसने
बेस्वाद खाने की थाली पोर्ट होल में खाली कर दी ।
लगातार ग्यारह दिनों की सेलिंग! सभी उकता चुके
थे, थक चुके थे, बेहाल
हो चुके थे । सभी को ऐसा लग रहा था कि कब जमीन देखेंगे । मास्ट पर बैठा हुआ
सागरपक्षी गुरु ने देखा और वह समझ गया - जमीन निकट आ गई है ।
जहाज़
पर उत्साह का वातावरण फैल गया ।
अँधेरा घिर आया था । जहाज़ की गति कम हुई । धीरे–धीरे
एक सौ अस्सी अंश घूमकर जहाज़ ने बन्दरगाह
की ओर अपनी पीठ कर ली और पीछे की ओर सरकने लगा। जहाज़ स्थिर खड़ा हो गया। पिछला दरवाजा खोला गया । एक
प्लेटफॉर्म बाहर निकला और हिन्दुस्तानी नौसैनिक लैंडिंग के लिए तैयार हो गए ।
प्लेटफॉर्म जहाँ समाप्त हो रहा था, वहाँ
दो फुट गहरा पानी था और किनारा बीस फुट दूर था । अपने सिर पर लदे बोझ को सँभालते, लड़खड़ाते
हिन्दुस्तानी सैनिक किनारे पर पहुँचे । इसके बाद बड़ी देर तक जहाज़ से तम्बू, रसद, आवश्यक
शस्त्रास्त्र, साधन आदि उतारे गए । सब काम समाप्त होते–होते
रात के बारह बज गए । सारे लोग समुद्र के जल से पूरी तरह भीग चुके थे, चुभती
हवा से बदन में कँपकँपी हो रही थी ।
Hey, you, notorious black chap, come here.'' गोरा अधिकारी रामन को बुला रहा था ।
''Yes, sir.''
कँपकँपाते रामन ने किसी तरह सैल्यूट करते हुए जवाब दिया ।
''Did
You see me?''
''Yes,
Sir.''
''Why
You Failed to Salute Me?''
''Sir,
I...''
''No arguments. Right turn, double march.''
और उस अँधेरे में बीस मिनट तक रामन दौड़ता रहा ।
तीन मील गड्ढों वाले रास्ते पर दौड़ने के बाद
प्लैटून कमाण्डर लीडिंग सीमन रॉय ने उसे रुकने का हुक्म दिया। रात वहीं गुजारनी थी ।
तंबू लगाए गए । गुरु और दत्त ने सामान में से
पोर्टेबल ट्रान्समीटर के उपकरण निकाले । ट्रान्समीटर और रिसीवर के खुले भाग जल्दी–जल्दी
जोडना शुरू किया। टेलिस्कोपिक एरियल जोड़ी, बैटरी
जोड़ी । माइक और मोर्स-की जोड़कर ट्रान्समीटर तैयार किया । दत्त ने हेड क्वार्टर की
काल साइन ट्रान्समिट करते हुए छह सौ किलो साइकल्स की फ्रिक्वेन्सी ट्यून की । गुरु
ने उन्हें भेजने के लिए पहला सन्देश सांकेतिक भाषा में रूपान्तरित कर दिया ।
आठ–दस बार हेडक्वार्टर की कॉल साइन
ट्रान्समिट करने के बाद भी जवाब नहीं मिला, तब
गुरु ने पूछा, ‘‘फ्रिक्वेन्सी तो ठीक–ठीक
ट्यून की है ना ?’’ दत्त
हँस पड़ा, ‘‘धीरज
रख, सब कुछ सही है । जवाब आएगा अभी ।’’ दत्त
कुछ ज़ोर से ही मोर्स–की खड़खड़ाने लगा ।
BNKG—DE—BNKG–I–BNKG—DE—BNKG–I...
और जवाब आया - BNKG—DE—BNKG–K–
दत्त
ने सांकेतिक भाषा
में सन्देश भेजा ।
DE–BNKGI–LANDED
SAFELY REQUEST INSTRUCTIONNS–K.
दोनों
जवाब का इन्तजार
करने लगे । उन्हें
ज्यादा देर रुकना
नहीं पड़ा ।
जल्दी
ही जवाब आया ।
BNKG–I–DE–BNKG–WAIT
FOR FURTHER INSTRUCTIONS COME UP AT 0600–K.
रात
के तीन बजे
थे । सिर पर
बोझ उठाए तीन
मील चलने के
कारण शरीर थकान
से चूर हो
रहा था । जहाज़
से बाहर आए
तीन घण्टे हो
चुके थे फिर भी
ऐसा लग रहा
था कि अभी जहाज़ पर
ही हैं । इंजन
की आवाज दिमाग
में घर कर गई
थी । कानों में
वही आवाज गूँज
रही थी । थककर
चूर हो चुके उन नौसैनिकों को तुरन्त
नींद ने घेर
लिया ।
अभी
अँधेरा ही था । गुरु
ने घड़ी देखी ।
छह बजने में
दस मिनट बाकी थे ।
उसने जल्दी से
दत्त को उठाया ।
छह बजे हेडक्वार्टर
से आगे की
सूचनाएँ आने वाली थीं ।
दत्त को उठाने
गया गुरु उसकी
ओर देखता ही
रह गया ।
‘‘अरे, ये
तेरे चेहरे को
क्या हो गया ?’’ गुरु
ने पूछा ।
आँखें मलते हुए उठकर बैठे दत्त ने चेहरे पर हाथ
फेरते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ है ? शायद कल
रात को किनारे
पर आते हुए
कीचड़ लगा होगा ।’’
‘‘कीचड़ नहीं
है । पूरे चेहरे
पर चोंच मारने
जैसे निशान हैं”।
‘‘और तेरा
चेहरा भी वैसा ही हो गया है । ये बेशक मच्छरों की करामात है ।’’ खुले
हाथ पर बैठे मच्छर को मारते
हुए दत्त ने कहा, ‘‘यहाँ
के और सिलोन
मच्छरों के बारे
में अब तक तो
सिर्फ सुना था ।
आज उनका अनुभव
भी ले लिया ।’’
दत्त
ने ट्रान्समीटर ऊपर
निकाला, जमीन पर रखा
। और
उसने भाँप लिया कि
नीचे कीचड़ नहीं
था, पर भरपूर
सीलन थी । दत्त
ने बिछाई हुई
दरी उठाई और देखता
ही रह गया ।
दरी पर दीमक
लग गई थीं ।
दत्त
ने हेडक्वार्टर से
सम्पर्क स्थापित किया
और अगले कार्यक्रम
के बारे में सूचनाएँ
प्राप्त कीं । गुरु
ने रिसीवर ट्यून
किया । आठ बजे
उसे हेडक्वार्टर से संदेश लेना
था । हेडक्वार्टर की फ्रिक्वेन्सी ढूँढ़ते
हुए उसे बीच
में ही शुद्ध हिन्दुस्तानी में
दी जा रही
खबरें सुनाई दीं
और वह उत्सुकता
से सुनने लगा ।
निवेदक कह रहा था, ‘‘कल
प्रेस कॉन्फ्रेन्स में नेताजी ने घोषणा की कि ब्रिटिश साम्राज्य के
जुए से आजाद
हुआ पहला हिन्दुस्तानी भू–भाग है
शहीद द्वीप–अण्डमान, इम्फाल पर किये जा
रहे हमलों में
आज़ाद हिन्द सेना
की गाँधी ब्रिगेड
सम्मिलित हुई है ।’’
नेताजी
के मतानुसार हिन्दुस्तान
की आज़ादी के
लिए आवश्यक परिस्थिति का निर्माण
अब हो गया
है । महत्त्वपूर्ण बात
यह है कि
हिन्दुस्तान में जारी
स्वतन्त्रता संग्राम और उनके
द्वारा बाहर से
लड़ा जा रहा
संग्राम - इन दोनों को
एकत्रित होना होगा ।
खबरें
सुनकर गुरु ने
सोचा कि उन्हें
भी कुछ करना
चाहिए । बर्मा पर अपना पलड़ा भारी करने के उद्देश्य से ब्रिटिशों
ने दिसम्बर में ही सेना की दो डिवीजन वहाँ
भेज दी थी, जापानी
सेना की आठ
डिवीजन बर्मा में
पहले ही मौजूद
थी ।
इंग्लैंड
के मुख्यमन्त्री विन्स्टन
चर्चिल को इस
बात का पूरा
एहसास था कि इस
महायुद्ध के हिन्दुस्तान
पहुँचने पर हिन्दुस्तानी नागरिक
आज़ाद हिन्द सेना का
सिर्फ स्वागत ही
नहीं करेंगे, बल्कि
उसमें शामिल भी
हो जाएँगे, और
ब्रिटिशों को अपना उपनिवेश
खोना पड़ेगा । इसलिए
उन्होंने इस मोर्चे
के सारे सूत्र
लॉर्ड माउंटबेटन के हाथों
सौंपकर उन्हें इस
बारे में सूचित
कर दिया था ।
‘‘विजयप्राप्ति
के लिए आवश्यक किसी भी मार्ग का अवलम्बन करें, चाहे
जो साधन प्राप्त करें । मेरा पूरा
समर्थन आपके साथ है ।’’
मित्र
राष्ट्रों की सेनाएँ
जापानी सेना को
पीछे खदेड़ रही
थीं । मित्र राष्ट्र अपनी ताकत
बढ़ा रहे थे ।
जापानी सेना के
जनरल कोवाबा को
कोहिमा से इम्फाल तक
पीछे हटना पड़ा
और आजाद हिन्द सेना को
भी इम्फाल से
चिंदविन नदी के पश्चिमी
किनारे पर वापस
लौटना पड़ा ।
अंग्रेज़
बर्मा में सेना
और युद्ध सामग्री
झोंक रहे थे ।
हिन्दुस्तानी नौसैनिकों को बर्मा
लाया गया था ।
निर्धारित भाग की
उन्हें आँखों में
तेल डालकर निगरानी करनी
थी । गुटों–गुटों में
पहाड़ी पर से
निगरानी करनी थी ।
संदेहास्पद बात दिखते ही
हेडक्वार्टर को वायरलेस
द्वारा सूचना देनी
होती थी । हर
गुट में दो
टेलिग्राफिस्ट और अन्य आठ
सैनिक होते थे ।
ड्यूटी तो एक
दिन की होती
थी, मगर यदि सैनिक
कहीं और व्यस्त
हों तो दो–दो
दिन भी करनी
पड़ती । खाना और
पानी साथ ले जाना
पड़ता । बदली सैनिक
के आए बिना
ड्यूटी छोड़ना मना था
। साथ लिया भोजन
और पानी यदि
समाप्त हो जाए
तो परिस्थिति बुरी
हो जाती थी ।
बर्मा
पहुँचने के बाद
से आजाद हिन्द
सेना के पीछे
ही हटने की
खबर मिल रही थीं ।
अंग्रेजों की विजय
की खबर से सैनिक नाचने
लगते । गुरु और दत्त
किसी भी तरह
की प्रतिक्रिया न
दिखाते ।
उस दिन जापान के हाथों से इम्फाल पर अंग्रेज़ों
के कब्ज़ा करने की खबर पाकर रामलाल खुशी से तालियाँ बजाते हुए नाचने लगा । गुरु को
रामलाल पर गुस्सा आ गया ।
‘‘इतना
क्यों नाच रहे हो ?’’
‘‘अरे, गोरे
फिर से जीत गए, जापानी भाग गए ।’’
‘‘ठीक
है, मगर तू क्यों नाच रहा है ?’’
गुरु की बुद्धि पर तरस खाते हुए रामलाल बोला, ‘‘अरे, मेरा
क्या है इसमें ?
बर्मा अंग्रेज़ों के कब्जे में आ गया कि हम लोग
हिन्दुस्तान वापस जाएँगे ।’’ पल भर रुककर उसने गुरु से पूछा, ‘‘क्या
तेरा दिल नहीं चाहता वापस हिन्दुस्तान लौटने को ?’’
‘‘मेरा
भी दिल चाहता है । मगर हिन्दुस्तान आज़ाद होना चाहिए...” वह अपने आप से पुटपुटाया ।
उसे अपने गाँव के क्रान्तिकारी प्रसाद की याद आई । बम्बई में जब वह मिला था तो कह
रहा था, ‘‘इस युद्ध में यदि इंग्लैंड हार जाता है तो
हिन्दुस्तान आज़ाद करने का एक अच्छा अवसर प्राप्त होगा ।’’
गुरु की इच्छा थी कि इस लड़ाई में इंग्लैंड की
पराजय हो जाए । बर्मा जापानियों के ही पास रहे और आज़ाद हिन्द सेना हिन्दुस्तान में
घुस जाए ।
मित्र राष्ट्रों की सेनाएँ आगे बढ़ रही थीं ।
इंग्लैंड को अपनी अन्तिम विजय में विश्वास नहीं था । जहाँ से सम्भव था वहाँ से
इंग्लैंड सैनिकों तथा युद्ध सामग्री को बर्मा भेज रहा था । पुरानी टुकड़ियों के
स्थान पर नयी टुकड़ियाँ आर्इं और पुरानी टुकड़ियों को इम्फाल भेजा गया ।
इम्फाल में सैनिकों को बैरेक्स में रखा गया
जहाँ काफी जगह थी, खाना समय पर दिया जाता था । सप्ताह में एक दिन
शहर में जाने की इजाजत मिलती थी ।
अंग्रेज़ों का गुप्तचर विभाग इम्फाल के
स्वतन्त्रता प्रेमी हिन्दुस्तानी व्यापारियों और हिन्दुस्तान की आजादी के लिए
स्थापित किए गए संगठनों के कार्यकर्ताओं को ढूँढने का काम कर रहा था, मगर
ये व्यापारी और संगठन परवाह किए बिना आज़ाद हिन्द फौज के लिए धन जुटा रहे थे, आह्वान
कर रहे थे । उस दिन गुरु की ड्यूटी रात को आठ बजे से बारह बजे की थी । पिछले
पन्द्रह दिनों में वह बाहर निकला ही नहीं था । आसपास की पहाड़ियों पर लुकआउट के लिए
लगातार आठ दिनों तक जाना पड़ा था । बाजार में कुछ छोटा–मोटा
सामान खरीदना था इसलिए वह रामलाल और नेगी के साथ शहर में गया । ज़रूरत का सामान
खरीदते–खरीदते सात बज गए । रामलाल और नेगी और अधिक
अँधेरा होने तक घूमना चाहते थे । उन्हें एकाध पैग पीना था, सम्भव
हुआ तो किसी हट्टी–कट्टी लड़की के साथ घण्टा–दो
घण्टा मौज–मस्ती करनी थी । गुरु को पौने आठ से पहले
बैरेक पहुँचना जरूरी था । गुरु ख़यालों में डूबा
हुआ था । बर्मा के लोग सोचते थे कि हमें और हमारे देश को जबरन ही इस युद्ध में
घसीटा गया है । आज़ाद हिन्द सेना और नेताजी के कारण बर्मा के लोगों को हिन्दुस्तानी
‘अपने’ लगते थे ।
‘‘अगर
नेताजी को पर्याप्त सैनिक सहायता मिलती तो...आज़ाद हिन्द सेना की हर पराजय के साथ
हिन्दुस्तान की आज़ादी भी एक–एक कदम पीछे हट रही है । गुरु का विचार–चक्र
घूम रहा था ।’’
गुरु एक छोटी–सी
गली में मुड़ा वहाँ लोगों का आना–जाना बिलकुल ही नहीं था । रास्ते पर वह अकेला
ही था । अचानक एक अजनबी आकर उसके सामने खड़ा हो गया ।
''Are
you Indian?''
''Yeah, I am.''
उस अजनबी ने दो–चार
काग़ज गुरु के हाथ में ठूँस दिये । ‘‘फेंकना मत, सारे
पढ़ना, मैं भी हिन्दुस्तानी हूँ । इसमें हमारे फायदे
की बात ही लिखी है ।’’
और वह व्यक्ति गली में गायब हो गया । यह सब
इतना अकस्मात् हुआ कि अगर कोई देख भी रहा होता तो समझ नहीं पाता कि असल में हुआ
क्या है । गुरु ने वे कागज जेब में ठूँस दिये । और मानो कुछ हुआ ही नहीं इस ठाठ से
वह चल पड़ा ।
‘‘कैसे
काग़ज होंगे ? कम्युनिस्टों के...हिन्दुस्तान के किसी
क्रांतिकारी गुट के या नेताजी के ही–––’’
बैरेक में पहुँचते ही वह बैटरी लेकर सीधे
शौचालय गया । वही एक ऐसी जगह थी जहाँ एकान्त मिल सकता था। कोई उसकी ओर ध्यान भी
नहीं दे सकता था । उसने जेब से कागज निकाले । वे आज़ाद हिन्द सेना के पत्रक थे ।
नीचे नेताजी के हस्ताक्षर थे । उन हस्ताक्षरों को देखकर उसका रोम–रोम
पुलकित हो उठा । पलभर को उसे लगा जैसे वह नेताजी का विश्वासपात्र दूत है । पत्रक
में नागरिकों का आह्वान किया गया था, प्रत्येक वाक्य हृदयस्पर्शी था । हर
वाक्य में सुभाष बाबू की मनोदशा का दर्शन हो रहा था ।
‘‘यदि
हमें आजादी प्राप्त करनी है तो हिन्दुस्तानी सेना का निर्माण करना ही होगा ।
स्वतन्त्रता के लिए कुर्बानी देने को तैयार सेना मुझे चाहिए । जॉर्ज वाशिंगटन के
पास अमेरिका में ऐसी सेना थी इसीलिए अमेरिका आज़ादी हासिल कर सका । गॅरिबाल्डी के
पास सशस्त्र स्वयंसेवकों का ऐसा दल था, इसीलिए वह इटली को मुक्त करवा सका ।
हिन्दुस्तानी नौजवानो! उठो । अपनी प्रिय मातृभूमि को स्वतन्त्र करवाने के लिए
हाथों में शस्त्र उठाओ ।
‘‘ईश्वर
का स्मरण करके हम ऐसी पवित्र शपथ लें कि भारतभूमि को और तीस करोड़ बन्धु–बान्धवों
को गुलामी से मुक्ति दिलाएँगे । स्वतन्त्रता के लिए आरम्भ किया गया यह युद्ध आखिरी
साँस तक अथक निष्ठा से जारी रखेंगे ।
‘‘आज
तक तुम औरों के लिए लड़े । अब अपनी भारत माँ के लिए लड़ो । यदि केवल जापानियों के
त्याग के फलस्वरूप हिन्दुस्तान को आजादी मिलती है तो वह गुलामी से भी अधिक शर्मनाक
होगी । हमें जो आजादी चाहिए, वह हिन्दुस्तानियों के त्याग के फलस्वरूप ही
मिलनी चाहिए ।
‘‘दोस्तो, ‘चलो
दिल्ली’ की गगनभेदी गर्जना करते हुए तुम लड़ो । मैं
तुम्हारे साथ प्रकाश में भी हूँ और अँधेरे में भी । मैं तुम्हारा साथ कभी नहीं
छोडूँगा । तुम्हारे और मेरे सुख–दुख एक हैं और हमेशा एक ही रहेंगे । दुख के
क्षण में, सुख के क्षण में और दिव्य विजय के उस क्षण में
हम सब एक ही रहेंगे । फ़िलहाल तो हमारे हिस्से में है भूख, प्यास, खतरनाक
मार्ग और मृत्यु । इसके अलावा तो आज तुम्हें देने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं ।
यदि तुम जीवन में, और मृत्यु के क्षण में भी मेरे पीछे आओगे, तो
मैं तुम्हें अथक परिश्रम से विजय के और
स्वतन्त्रता के दिव्य मार्ग पर ले जाऊँगा ।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए हम सबको अपना सर्वस्व न्यौछावर करना होगा । जय हिन्द!’’
गुरु ने उन काग़ज़ों को ऐसे सँभालकर अपनी अलमारी
में रखा जैसे परम्परा से प्राप्त तीर और कलम पूजा घर में भक्तिभाव से रखे जाते हैं
।
इम्फाल के उस बैक–स्टेशन
(Rear Base - पिछले भाग) पर हिन्दुस्तानी सैनिकों के साथ
अमेरिकन, ब्रिटिश, चीनी
और ऑस्ट्रेलियाई सैनिक थे । उनकी बैरेक्स अलग–अलग
थीं, मेस भी अलग थीं । विभिन्न देशों के सैनिक एक–दूसरे
से मिलते, परिचय होने पर एक–दूसरे
की बैरेक में गप्पें मारने जाते । उनके स्वभाव भिन्न थे । अफ्रीकी सैनिक गुस्सैल
और चिड़चिड़े प्रतीत होते, अमेरिकन खुले दिल वाले, स्वच्छन्द, उनके
चेहरों पर युद्ध
का तनाव नहीं
झलकता था । हमेशा
हँसमुख रहते । ब्रिटिश सैनिक
ऐसी गुर्मी से
बर्ताव करते, जैसे ‘सारी दुनिया
मेरे पैरों तले है
।’ और
हिन्दुस्तानी सैनिकों के
साथ बातें करते
हुए तो इस
बात का अनुभव
बड़ी तीव्रता से होता ।
सम्पर्क भाषा अंग्रेजी
होने पर भी
हरेक का उच्चारण
अलग–अलग होता
था । ब्रिटिश सैनिक
मुँह ही मुँह
में बोलते, अमेरिकन
सैनिकों के उच्चारण स्पष्ट होते, मोटे–मोटे
होंठों वाले अफ्रीकी
सैनिकों के उच्चारण
और भी अलग होते । इन
सबके मन में
हिन्दुस्तान, वहाँ के
लोग, उनके रीति–रिवाज आदि के बारे में कुतूहल होता था ।
''You Know Kotnis? He was a great man.'' चीनी सैनिक कहता ।
‘‘तुम महात्मा
गाँधी को जानते
हो ? कैसे रहते
हैं वे ? क्या
खाते हैं ?’’
नीग्रो का उत्सुक
प्रश्न ।
इन सभी की युद्ध की समाप्ति के पश्चात्
हिन्दुस्तान आने की इच्छा थी, यहाँ
के लोगों को देखना था । जंगलों में
घूमना था ।
‘‘क्या रे,’’ एक
अमेरिकन सैनिक दत्त
से पूछ रहा
था, ‘‘हम तो
अपनी मातृभूमि के लिए लड़ रहे
हैं, तुम किसलिए
लड़ रहे हो ?’’
यही
सवाल तो उसके मन में बार–बार
उठता था, ‘‘जवाब क्या है ?’’ उसे
याद आया, उसने कहीं पढ़ा था, ‘‘हम
फासिज्म के खिलाफ
लड़ रहे हैं ।’’
‘‘और उपनिवेशवाद
के विरुद्ध...
1942
के बाद क्या
किया ?’’ दत्त के
पास जवाब नहीं था ।
‘‘मेरा देश
भी उनके अधीन
था । हमने सेना
बनाई, युद्ध किया
और गुलामी का जुआ उखाड़ फेंका ।
तुम्हें भी ऐसा ही करना चाहिए नरभक्षक शेर को गोली ही मारनी
चाहिए । तुम लोग
फासिज्म नष्ट करने
के स्थान पर
उपनिवेशवाद का मजबूत बना
रहे हो ।’’
दत्त
के मन में
विचारों का तांडव
हो रहा था ।
हिन्दुस्तान पर युद्ध लादनेवाले ये
अंग्रेज कौन हैं ? शत्रु
की मुसीबत ही
हमारे लिए एक
सन्धि है––– युद्ध
समाप्त होने के बाद
क्या अंग्रेज़ हिन्दुस्तान
छोड़ देंगे ? या
आज ही जैसी
चर्चाओं का नाटक... हिन्दुस्तान सोने
के अण्डे देने
वाली मुर्गी... इंग्लैंड
के औद्योगिक विकास का आधार... अंग्रेज़
ये सब कुछ छोड़ देंगे?... ना! हिन्दुस्तानी नेताओं को सिर्फ़ लटकाए रखेंगे
।
‘‘मैं इंग्लैंड
का प्रधानमन्त्री, उसका
दीवाला निकालने के
लिए नहीं बना हूँ...’’ ऐसा
कहने वाला चर्चिल क्या हिन्दुस्तान छोड़ेगा ? भँवर
में फँसा मन सूखे पत्ते जैसा हलकान हो
रहा था ।
‘‘आजाद हिन्द सेना का निर्माण करके अंग्रेज़ों के
विरुद्ध डंड पेलते खड़े नेताजी; मुझे हिन्दुस्तान की आज़ादी सिर्फ सत्य–अहिंसा के मार्ग से ही प्राप्त करनी है - ऐसा
कहने वाले गाँधीजी और उनके निष्ठावंत अनुयायी; इस विचारधारा से कुछ दूर छिटके जयप्रकाश लोहिया, राजगुरु, सुखदेव, धिंग्रा जैसे देशभक्तों का हिंसा का मार्ग और हँसते–हँसते स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर जान निछावर
करने वालों का अहिंसक मार्ग...योग्य मार्ग कौन–सा है ? किस मार्ग से स्वतन्त्रता शीघ्र प्राप्त होगी ?’’ विचार गड्डमड्ड हो रहे थे ।
जब विदेशी सैनिक मिलते और स्वतन्त्रता पर
बातचीत होती तो भावनाप्रधान स्वाभिमानी सैनिक अस्वस्थ हो जाते ।
ऑपरेशन रूम में गुरु के साथ यू.एस. नेवी
का मायकेल भी ड्यूटी पर था । इस छोटे–से
कमरे में विशाल देश के भिन्न–भिन्न
मोर्चों से संदेश आ रहे थे । वैसे ट्रैफिक ज्यादा नहीं था । गोरा–गोरा, तीखे
नाक–नक्श वाला, दुबला–पतला, मायकेल
साफ–हृदय का था । हिन्दुस्तान के बारे में उसके मन
में उत्सुकता थी ।
वह हमेशा सवाल पूछा करता, ‘‘क्या हिन्दुस्तान में अभी भी शेर–सिंह रास्ते पर घूमते हैं ? क्या घर–घर में साँप होते हैं ? क्या बंगाली जादूगर आदमियों को भी गायब कर देते
हैं ?
क्या सुभाषचन्द्र बोस जादू जानते हैं ?’’ गुरु को इन सवालों पर हँसी आती । मगर उस दिन
मायकेल के सवालों ने उसे बेचैन कर दिया ।
ट्रैफिक नहीं था, इसलिए मायकेल गुरु की मेज के पास आया । इधर–उधर की बातें करने के बाद उसने धीरे से गुरु से
पूछा,
‘‘क्या तुमने गाँधी को देखा है ?’’
गुरु ने गर्दन हिला दी ।
''He is a great man. मेरे मन में उनके लिए आदर है, मगर एक बात मैं समझ नहीं पाता कि यह आदमी बिना
अस्त्र उठाए, बिना बारूद–गोले का इस्तेमाल किए अंग्रेज़ों से लड़ कैसे रहा
है ?’’
वह भावना विवश होकर बोला ।
''I Like Indians. They are terrors; तुम हिन्दुस्तानियों की एक बात मैं समझ नहीं
पाता,
तुम्हारे यहाँ इतने शूरवीर लोग होते
हुए भी तुम सौ–सवा सौ सालों से गुलाम क्यों हो ?’’
गुरु को मायकेल की बात पर हँसी आ गई । ‘‘हँसते–हँसते फाँसी चढ़ने वाले राजगुरु, भगत सिंह, चाफेकर, अंग्रेज़ी सत्ता के विरोध में खड़े होने वाले
सुभाषचन्द्र बोस जैसे मुट्ठीभर नरकेसरियों को देखकर कितनी गलतफहमी हो जाती है
लोगों को । जब पूरा हिन्दुस्तान भड़क उठेगा तभी अंग्रेज़ों को भगाना सम्भव हो पाएगा
।
वाकई, क्या अहिंसा के मार्ग से आजादी मिलेगी ?’’ गुरु सोच रहा था ।
‘‘अरे, सोच
क्या रहा है ? मुझे पक्का विश्वास है कि सुभाषचन्द्र
बोस ही तुम्हें आजादी दिलवाएँगे । क्या आदमी है! बिजली है, बस! वे जब बोलने लगते हैं तो मुर्दों में भी
जान आ जाती है, रे!’’ मायकेल मंत्रमुग्ध हो गया था ।
‘‘तुझसे कहता हूँ, तुम सबको सुभाषचन्द्र बोस को ही एक दिल से अपना
नेता मानना चाहिए । वे एक अच्छे सेनानी हैं । अपने सैनिकों का और युद्धभूमि का
उन्हें अच्छा ज्ञान है । शत्रु की व्यूह रचना कैसी होगी इसका अचूक अन्दाज उन्हें
रहता है । अगर जर्मनी के पास सुभाषचन्द्र बोस जैसे दो–चार सेनापति भी होते ना, तो पूरे महायुद्ध की तस्वीर ही बदल गई होती ।’’
गुरु मायकेल की बातों पर विचार कर रहा था । ‘‘युद्ध काल में हिन्दुस्तानी नौसेना के सैनिक
पढ़े–लिखे थे । उनमें विचारों की प्रगल्भता थी ।
उम्र में वे बड़े थे । इन सैनिकों में कुछ सैनिक केवल पेट के लिए काम नहीं करते थे
। उनमें से अनेक लोग नौसेना में भर्ती होने से पूर्व अलग–अलग संगठनों में, दलों में या आन्दोलनों में काम किया करते थे ।
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