सन् 1946 के नौसैनिकों के विद्रोह पर आधारित उपन्यास
वडवानल
लेखक
राजगुरू दत्तात्रेय आगरकर
हिंदी अनुवाद
आ. चारुमति रामदास
अनुवादिका का प्रतिवेदन
पिछले वर्ष मार्च में प्रो. आगरकर
जी ने फोन पर मुझसे पूछा कि क्या मैं नौसेना विद्रोह पर आधारित उनके उपन्यास ‘वड़वानल’ का
हिन्दी में अनुवाद कर सकूँगी ?
प्रो. आगरकर से मेरा ज़रा–सा
भी परिचय नहीं था । होता भी कैसे ?
नौसेना में कुछ वर्ष कार्य करने के बाद
वे महाराष्ट्र में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर के रूप में निवृत्त हुए थे । मैंने कहा कि उपन्यास
पढ़ने पर ही इस बात का उत्तर दे पाऊँगी । करीब पन्द्रह दिनों में ही उपन्यास मुझे प्राप्त हो गया और उसे जो हाथ
में लिया तो पूरा समाप्त होने पर ही वह हाथ से छूट पाया ।
कुछ असम्भव–सी
बात थी––– नौसैनिक, अर्थशास्त्र
के प्रोफ़ेसर, लेखक–––विषय–वस्तु
ऐसी जो अब तक ढँकी–छुपी थी, और
जिसे ज्यादा से ज्यादा भारतवासियों तक पहुँचना भी है! उन अज्ञात, अनजान
नौसैनिकों के सन् 1946 में हुए विद्रोह का यह वर्णन है, जिसने
ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी । अफसोस की बात यह है कि इन भूले–बिसरे
स्वतन्त्रता सेनानियों के कारनामे जनता तक पहुँच ही नहीं पाए ।
मैंने अनुवाद–कार्य
आरम्भ कर दिया––– आगरकर जी बीच–बीच
में काम के बारे में ‘उत्सुकतावश’ पूछ
लिया करते थे । ऐसे ही एक वार्तालाप के बीच उनके मुँह से निकल गया कि वे अस्वस्थ
हैं और ‘बेड–रेस्ट’ पर
हैं ।
मैंने पूरे जोर–शोर
से उपन्यास का अनुवाद पूरा करने की ठान ली । जब अन्तिम पैंतालीस पृष्ठ शेष थे, तब
मैंने उनसे कहा, ‘‘करीब दस दिनों में पूरा हो जाएगा, सर!
आप बिलकुल चिन्ता न करें ।’’ फिर जब 20
जून को मैंने यह बताने के लिए फोन किया कि अनुवाद पूरा हो चुका है, तो फ़ोन का कोई जवाब नहीं आया । मन में शंका कौंध गई! अच्छे
तो हैं ? शाम को उनके पुत्र ने सूचित किया कि 13
जून, 2011 को अचानक उनका निधन हो गया!
इस बात का दुख तो मुझे है कि आगरकर जी अपने ‘वड़वानल’ का
हिन्दी अवतार न देख सके, मगर इस बात से सन्तोष भी कर लेती हूँ कि उन्हें
इस बात का यकीन हो गया था कि अनुवाद–कार्य पूरा होने को है, वे प्रसन्न भी थे ।
श्रद्धांजलि के रूप में इस हिन्दी अनुवाद को
समर्पित करती हूँ प्रो. आगरकर जी को, और
उन जैसे साहसी नौसैनिकों को जिन्होंने अपना सर्वस्व मातृभूमि की स्वतन्त्रता के
लिए न्यौछावर कर दिया ।
5 जुलाई, 2011 हैदराबाद
चारुमति रामदास
अन्तर्मन का वड़वानल
सन् 1972
में मैंने नौसेना की नौकरी छोड़ दी । मन के भीतर नौसेना के विद्रोह से सम्बन्धित जो
तूफ़ान उठा
था,
वह शान्त नहीं हुआ था । मैं इतिहास की
पुस्तकें छान रहा था, मगर इस विद्रोह का वर्णन आठ–दस पंक्तियों में अथवा हद से हद एक–दो पन्नों में लिखा देखता तो मन में यह सवाल
उठता कि स्वतन्त्रता के इतिहास का यह विद्रोह क्या इतना नगण्य था ?
‘खलासियों का विद्रोह’ नामक पुस्तक जो विद्रोह के बाद प्रकाशित हुई थी, मेरे हाथ लगी । इस पुस्तक में यह निष्कर्ष दिया
गया था कि स्वार्थ से प्रेरित होकर नौसैनिकों ने विद्रोह किया था । मन ग्लानि से
भर गया । मन में यह प्रश्न उठा कि जब पूरा देश विदेशियों के अत्याचार से पिस रहा
था,
उस समय नौसैनिक अपने स्वार्थ की रोटी
पकाने की सोचें––– क्या वे इतने गए–गुजरे हैं ? क्या उन पर देश की परिस्थिति का, नेताजी की आजाद हिन्द सेना का और इस सेना
द्वारा स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए किए गए बलिदान का कोई प्रभाव नहीं पड़ा ? मैं सत्य जानना चाहता था । स्वतन्त्रता आन्दोलन
से सम्बन्धित जितनी भी पुस्तकें
मिलतीं, मैं पढ़ने लगा ।
अकोला के डॉ. वी. एम. भागवतकर की पुस्तक Royal Indian Navy uprising and Indian Freedom struggle
तथा इस विद्रोह का नेतृत्व कर रहे
बी.सी.
दत्त की पुस्तक Mutiny of Innocents ये दो पुस्तकें पढ़ते ही तस्वीर
स्पष्ट हो गई । नौदल सैनिकों का वह विरोध नहीं
था,
बल्कि स्वतन्त्रताप्राप्ति के लिए उनके
द्वारा किया गया विद्रोह था; वह
हिन्दुस्तान की अंग्रेजी हुकूमत को भस्म करने के लिए निकला हुआ वड़वानल था ।
विद्रोह का पूरा चित्र मेरी आँखों के सामने खड़ा हो गया । विद्रोह से सम्बन्धित
घटनाएँ जहाँ हुई थीं, उस परिसर से मैं भलीभाँति परिचित था ।
नौसेना के वातावरण से मैं एकरूप हो चुका था ।
नौसेना के दस
वर्षों के सेवाकाल
में वहाँ के
संस्कार और उसकी
संस्कृति मेरे रोम–रोम में
समा गई थी ।
नौसेना के विद्रोह
से मैं मन्त्रमुग्ध
हो गया था ।
यह सब लोगों तक पहुँचना ही चाहिए, उसे पहुँचाना मेरा कर्तव्य है ऐसा विचार मन में
घर करने लगा और एक कथानक ने आकार ग्रहण करना आरम्भ कर दिया ।
इस कथानक में
जो कुछ रिक्त
स्थान थे उन्हें
भरने के लिए
मौलाना आजाद
की India wins Freedon, द्वारकादास कान जी की Ten Years to Freedom, आर. पाम दत्त की India Today, निकोलस द्वारा सम्पादित Transfer of Power के विभिन्न खण्ड, प्रभाकर ऊर्ध्वरेषे की
‘‘भूले–बिसरे दिन (‘हरवलेले दिवस’)’ ये पुस्तकें थीं
ही ।
सन् 1967 का
आरम्भ था । मैं विशाखापट्टनम् के INS ‘सरकार्स’ पर था । उस रात
को मैं सिग्नल सेंटर के क्रिप्टो ऑफिस में ड्यूटी कर रहा
था | सन्देशों का ताँता लगा हुआ था । कई संदेश सांकेतिक भाषा में थे । अपने
सहकारियों
की
सहायता से मैं
सांकेतिक भाषा वाले
सन्देशों को सामान्य
भाषा में रूपान्तरित कर रहा था । बीच ही में नेवल सिग्नल सेंटर मुम्बई से
एक सन्देश आया जो सांकेतिक भाषा में था ।
सत्तर ग्रुप वाले इस सन्देश का रूपान्तरण मैंने
आरम्भ किया और घंटा–डेढ़
घंटा मगजमारी करने के बाद मैं समझ गया कि सन्देश में
गलतियाँ हैं । वह सन्देश
लेकर मैं ड्यूटी
चीफ योमन राव
के पास गया । उसने भी
सन्देश को सामान्य
भाषा में रूपान्तरित
करने का प्रयत्न
किया, मगर बात ही नहीं बन रही थी ।
‘‘बाबू, फिर से म्यूटिनी
तो नहीं हुई ? उस समय भी
ऐसे ही मेसेज
आते थे!’’ चीफ की
आवाज की चिन्ता
उसके चेहरे पर
दिखाई दे
रही थी ।
मैं कुछ भी
समझ नहीं पाया ।
‘‘कौन–सी म्यूटिनी, चीफ ?’’ मैंने पूछा ।
‘‘Nothing,
बाबू, Forget
it!’’ चीफ
ने मेरे प्रश्न
को टाल दिया । ‘‘It was a dream!’’
उसके जवाब से
मन में उत्सुकता
उत्पन्न हो गई ।
मैं ‘बेस’ के पुराने
सैनिकों से विद्रोह के
बारे में पूछता
था । कुछ लोग
सतही जानकारी दे देते; कुछ लोग
टाल देते,
‘‘माफ
करो! अब वे
यादें भी बर्दाश्त
नहीं होतीं!’’
इस चर्चा से
मैं एक बात
समझ रहा था
कि सन् 1946 के विद्रोह
में मेरी, अर्थात् कम्युनिकेशन
ब्रांच ने आगे
बढ़कर हिस्सा लिया
था । विशाखापट्टनम् के सिग्नल
सेंटर से ‘सरकार्स’ के विद्रोह का नियन्त्रण किया गया था ।
मुझे इस बात
पर गर्व होने लगा कि मैं कम्युनिकेशन ब्रांच का हूँ और
उसी सिग्नल सेंटर में काम कर रहा हूँ; और नौसैना के विद्रोह के प्रति आत्मीयता बढ़ती
गई । विद्रोह में शामिल इन सैनिकों ने हिन्दुस्तानी जनता से कहा था, ‘‘हम
सैनिकों का आत्मसम्मान अब जागृत हो चुका है । हमें भी स्वतन्त्रता की आस
है । उसे प्राप्त करने के लिए हम तुम्हारे
कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ने के लिए तैयार हैं ।’’ इन
सैनिकों ने अंग्रेजी हुकूमत को चेतावनी दी थी, ‘‘अब
हम तुम्हारा साथ नहीं देंगे;
अपने देश बन्धुओं के खिलाफ हथियार नहीं उठाएँगे । तुम यह देश छोड़कर चले जाओ!’’
यह सब कैसे हुआ होगा यह जानने की उत्सुकता थी ।
ऐसा प्रतीत होता है कि कम्युनिस्ट पार्टी एवं समाजवादी विचारों के नेताओं को छोड़कर
अन्य सभी राष्ट्रीय पार्टियाँ, अर्थात् कांग्रेस और मुस्लिम लीग, इस
विद्रोह का विरोध कर रही थीं । अरुणा आसफ अली वादा करके भी सैनिकों से नहीं मिलीं
और न ही उन्होंने उनका नेतृत्व किया । सबसे तीव्र विरोध था सरदार पटेल का । वे
शुरू से ही सैनिकों को ‘बिना शर्त आत्मसमर्पण’ करने
की सलाह दे रहे थे । 26 फरवरी को पंडित नेहरू ने चौपाटी पर दिये गए
अपने भाषण में कहा कि सैनिकों का संघर्ष न्यायोचित था; मगर अंग्रेजों द्वारा सैनिकों पर तथा जनता पर
की गई गोलीबारी की और उनके अत्याचारों की निन्दा करना तो दूर, उन्होंने
इसका उल्लेख तक नहीं किया । मुस्लिम लीग के जिन्ना ने विद्रोह का समर्थन तो किया
ही नहीं, बल्कि बिलकुल अन्तिम क्षण में सैनिकों को
सन्देश भेजकर धर्म के नाम पर उनमें फूट डालने का प्रयास किया । आजादी प्राप्त होने
के बाद भी कांग्रेसी नेताओं के मन में सैनिकों के प्रति ईर्ष्या कायम रही । आजादी
मिलने के पश्चात् पूरे बीस साल केन्द्र में कांग्रेस की सत्ता होते हुए भी इन
सैनिकों को स्वतन्त्रता सेनानी नहीं माना गया । सैनिकों की यही इच्छा थी कि
स्वतन्त्र भारत की नौसेना में सेवा करें। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् सरदार
पटेल ने लोकसभा में घोषणा की थी कि नौसेना के विद्रोह में शामिल होने के कारण जिन
सैनिकों को नौसेना से निकाल दिया गया है, वे अगर चाहें तो नौसेना में उन्हें
वापस लिया जा सकता है । यह घोषणा सिर्फ़ कागज़ पर ही सीमित रही । सैनिकों को नौसेना
में वापस लिया ही नहीं गया । इसके विपरीत जो
अधिकारी सैनिकों का विरोध कर रहे थे और अंग्रेजों के साथ थे उन्हें तरक्की देकर
ऊँचे पदों पर नियुक्त किया गया ।
पाकिस्तान में स्थिति इसके विपरीत रही । वहाँ न
केवल इन को वापस नौसेना में बुलाया गया, बल्कि उन्हें अधिकारियों के पद भी दिये
गए, ऐसा ज्ञात होता है । समझ में नहीं आता कि
राष्ट्रीय पक्षों का ऐसा दृष्टिकोण किसलिए था ।
वास्तविकता को न छेड़ते हुए, एक
लेखक को घटनाओं के वर्णन की जो आजादी प्राप्त है, उसका
उपयोग मैंने किया है । नौसैनिकों के मन में राष्ट्रीय पक्षों, राष्ट्रीय
नेताओं और अंग्रेजों के प्रति जो क्रोध उफन रहा था, उसे
चित्रित करते हुए मैं वास्तविकता से दूर नहीं हटा हूँ । सैनिकों के मन में
अंग्रेजों के प्रति जो क्रोध है,
वह किसी व्यक्ति विषय के प्रति नहीं, अपितु
विदेशी हुकूमत के प्रति है । शायद इससे सम्बन्धित भावनाएँ अतिरंजित प्रतीत हों, मगर
सैनिकों की तत्कालीन परिस्थिति पर ध्यान दिया जाए तो वे वास्तविक ही प्रतीत होंगी
ऐसा
मेरा विचार है ।
इस विद्रोह को भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में
कितना महत्त्व दिया गया ? विद्रोह के सम्बन्ध में संशोधन करते हुए मुझे
यह अनुभव हुआ कि इस विद्रोह ने अंग्रेजी हुकूमत को जबर्दस्त आघात पहुँचाया था ।
विद्रोह के पहले दो दिनों में अंग्रेजों को नानी याद आ गई थी । इंग्लैंड में
विद्रोह की सूचना 18 फरवरी, 1946 को
पहुँची और दूसरे ही दिन सेक्रेटरी ऑफ स्टेट्स फॉर इण्डिया, लॉर्ड
पेथिक लॉरेन्स ने हाउस ऑफ लॉर्ड्स एवं प्रधानमन्त्री , ऐटली ने हाउस ऑफ कॉमन्स में तीन मन्त्रियों के
शिष्टमण्डल की नियुक्ति की घोषणा कर दी । घोषणा करते
हुए ऐटली ने कहा कि भारत में हम ज्वालामुखी के
मुहाने पर बैठे हैं । कैबिनेट मिशन (तीन मन्त्रियों के शिष्टमण्डल) की 19
तारीख को घोषणा संयोगवश नहीं हुई थी;
क्योंकि भारत में नौसेना के विद्रोह के कारण परिस्थिति गम्भीर हो गई है यह बात
ऐटली समझ गए थे । दिनांक 15 मार्च, 1946 को
कैबिनेट मिशन के सदस्यों को विदा करते समय ऐटली ने कहा - ‘‘हिन्दुस्तान
में आज भयानक तनावग्रस्त परिस्थिति निर्मित हो गई है और यह परिस्थिति वास्तव में
गम्भीर है...1946 की परिस्थिति 1920, 1930
अथवा 1942 की परिस्थिति से भी ज्यादा गम्भीर है...युद्ध
में सराहनीय कार्य करने वाले सैनिकों के बीच भी राष्ट्रप्रेम की भावना उत्पन्न हो
गई है ।’’
प्रधानमन्त्री पद से हटने के पाँच वर्ष बाद
ऐटली भारत आए थे । उनके कलकत्ता निवास के दौरान कलकत्ता उच्च न्यायालय के प्रमुख
न्यायाधीश और बंगाल के कार्यकारी राज्यपाल पी.बी. चक्रवर्ती
ने ऐटली से पूछा था -‘‘गाँधीजी का ‘भारत
छोड़ो आन्दोलन’ 1947 के काफ़ी पहले समाप्त हो गया था ।
अंग्रेज़ फौरन हिन्दुस्तान छोड़ दें, ऐसी
उस समय की परिस्थिति भी नहीं थीय फिर भी ऐसा निर्णय क्यों लिया गया ?’’
‘‘अनेक
कारण थे, मगर सबसे महत्त्वपूर्ण कारण था सुभाषचन्द्र बोस
और उनकी फौज । हिन्दुस्तान के सैनिकों पर निर्भर नहीं रहा जा सकता, इस बात का यकीन होने पर हमारे सामने कोई
अन्य मार्ग ही नहीं था ।’’
‘‘हिन्दुस्तान छोड़ने के आपके निर्णय के पीछे
गाँधीजी के आन्दोलन का कितना हाथ था ?’’
ऐटली शांति से एक–एक शब्द को तौलते हुए बोले, ‘‘बहुत ही कम ।’’
ये सारी घटनाएँ यही सिद्ध करती हैं कि
नौसैनिकों द्वारा किया गया विद्रोह साम्राज्यवादी अंग्रेज हुकूमत पर किया गया
अन्तिम प्रहार था । सशस्त्र क्रान्तिकारियों द्वारा किया गया यह आघात बड़ा जबर्दस्त
था । तत्कालीन अहिंसावादी आन्दोलन के नेताओं ने हालाँकि इस विद्रोह को कोई महत्त्व
नहीं दिया, फिर भी मेरा यह
निष्कर्ष है कि भारत के स्वतन्त्रता संग्राम
में इस विद्रोह का स्थान महत्त्वपूर्ण है ।
मूल मराठी में लिखे इस उपन्यास को अन्य भाषाओं
के माध्यम से अधिकाधिक पाठकों तक पहुँचाने की तीव्र इच्छा थी । इस कार्य का
शुभारम्भ हिन्दी अनुवाद से हुआ है । डॉ. चारुमति
रामदास के अनुवाद से मैं उनका अत्यन्त आभारी हूँ ।
हिन्दीभाषी पाठकों तक उपन्यास पहुँचाने में
पुस्तक प्रतिष्ठान, नयी दिल्ली के श्री राहुल शर्माजी ने
जो योगदान दिया है उसके लिए मैं उन्हें धन्यवाद देता हूँ ।
यदि इस अनुवाद से प्रेरित होकर किसी अन्य
भारतीय भाषा में उपन्यास का अनुवाद हो जाए तो मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी ।
डॉ. राजगुरु
द. आगरकर
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