सोमवार, 5 मार्च 2018

Vadvanal - 03




‘‘दत्त...’’ दत्त को आवाज जानीपहचानी लगी । मगर आवाज देने वाले व्यक्ति को वह पहचान नहीं पा रहा था ।
‘‘इम्फाल जैसी अनजान जगह पर मुझे पुकारने वाला सिविलियन कौन हो सकता है ?’’
पुकारने वाला व्यक्ति शीघ्रता से आगे आया, ‘‘मुझे नहीं पहचाना? मैं - भूषण ।’’
भूषण... दत्त के गाँव के क्रांतिकारी युवकों में से एक । दत्त की आयु के नौजवानों को इकट्ठा करके उन्हें आजादी की घुट्टी पिलाने वाला, अंग्रेज़ों के अत्याचारों के किस्से सुनानेवाला भूषण ।
‘‘अरे, कैसे पहचानूँगा ? तेरा ये दाढ़ीमूँछों का जंगल...बदली हुई वेशभूषा... तू यहाँ कैसे ?’’
‘‘बहुत सारी बातें करनी हैं । किसी गोरे कुत्ते ने अगर तुझे सिविलियन से बात करते हुए देख लिया तो मुसीबत हो जाएगी...काफी फ़ासला रखकर मेरे पीछे आ ।’’ दत्त काफ़ी अन्तर रखकर उसके पीछे जाने लगा ।
भूषण एक घर में घुसा । कोई देख तो नहीं रहा है, ये सावधानी रखते हुए दत्त भी उस घर में घुसा ।
, बैठ!’’ एक छोटीसी कोठरी में कुर्सी की ओर इशारा करते हुए भूषण ने कहा ।
‘‘तू यहाँ कैसे ?’’ दत्त ने पूछा ।
‘‘अपने गाँव में पुलिस चौकी पर जो हमला हुआ था उसके बारे में शायद तुम्हें मालूम हो । उस हमले में आठ बन्दूकें और काफी गोलाबारूद हाथ आए । मगर चार कॉन्स्टेबल मारे गए । मेरे खिलाफ़ गिफ्तारी का वारण्ट निकला, मगर मैंने पुलिस को चकमा दिया और आजादी के प्रयत्न जारी रखने के उद्देश्य से आसाम से होते हुए इम्फाल आ गया । यहाँ मेरे जैसे क्रान्तिकारियों और हिन्दुस्तान की आजादी के लिए सहायता करने वाले व्यापारियों का संगठन स्थापित किया । पिछले ढाई सालों से में यहाँ पर हूँ । तुम नौसेना में भर्ती हो गए, अच्छा किया ।
‘‘मुझे तो असल में क्रान्तिकारी संगठन में शामिल होना था । देश की आजादी के लिए अपना सर्वस्व कुर्बान करना था, मगर गाँव के क्रान्तिकारी रामकिशन और लालसिंह की सलाह के अनुसार नौसेना में भर्ती हो गया । मगर अब पछता रहा हूँ । कुछ भी करना सम्भव नहीं है । सारे अन्याय, अत्याचार ख़ामोशी से सहने पड़ते हैं । ऐसा लगता है जैसे हम गूँगे जानवर हैं । ऐसा लगता है कि नौसेना के सारे बन्धन तोड़कर बाहर आ जाऊँ और देश के लिए कुछ करूँ ।’’
‘‘ऐसी गलती हरगिज न करना। तुम्हें नौसेना में रहकर बहुत कुछ करना है। समान विचारों वाले सैनिकों का संगठन स्थापित कर सकते हो। याद रखो, सन् 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में सैनिकों ने नेतृत्व किया था,  मगर सामान्य जनता इससे दूर थी, सन् 1942 में परिस्थिति इसके ठीक विपरीत थी। ये आन्दोलन सर्व सामान्य जनता का था, मगर सैनिक इससे दूर रहे । सन् 1942 के आन्दोलन में यदि सैनिकों को अपने हथियार डालकर आन्दोलन में शामिल होने का आह्वान किया जाता तो निश्चित रूप से स्वतन्त्रता प्राप्त हो गई होती । जब सभी, चाहे वो सैनिक हों या नागरिक, गुलामी के विरुद्ध खड़े होंगे तभी ये जंजीरें टूटकर गिर पड़ेंगी । और इसीलिए लालसिंह, रामकिशन जैसे दूरदर्शी नेताओं ने तुम जैसे नौजवानों को सेना में भर्ती होने की सलाह दी ।’’
‘‘मगर मैं अकेला क्या कर सकता हूँ ?’’
‘‘तुम अकेले नहीं हो । ध्यान से चारों ओर देखो । तुम्हें अपने साथी मिल जाएँगे । उन्हें इकट्ठा करो । और यदि अकेले भी हो तो भूलो मत कि एक चिनगारी दावानल भड़का सकती है । अपने भीतर की ताकत को पहचानो । गुलामों को उनकी गुलामी का एहसास दिलाओ, वे दासता के खिलाफ़ खड़े हो जाएँगे ।’’
और फिर वे काफी देर तक चर्चा करते रहे देश, क्रान्ति, गाँव की परिस्थिति आदि के बारे में ।

गुरु के मन में हमेशा यह ख़याल आता कि ‘‘हम अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, चीन आदि विभिन्न राष्ट्रों के कंधे से कंधा लगाकर लड़ते हैं और किसी भी बात में उनसे कम नहीं हैं, उल्टे ज्यादा ही योग्य साबित होते हैं । ऐसा होते हुए भी हम क्यों गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहें ? अंग्रेज़ों को यह इजाजत क्यों दें कि हमारा उपयोग बलि के बकरे जैसा करें ? उनके विरुद्ध बगावत क्यों न करें ?’’
दूसरा मन उससे पूछता, ‘‘मेरे जैसे ही सभी बेचैन होंगे–––पहचानूँ कैसे ? या सिर्फ मैं ही भावनाप्रधान होने के कारण ऐसा....किसी के चेहरे पर कुछ भी क्यों नहीं दिखाई देता ? कोई भी कुछ कहता क्यों नहीं ? राख का पुट चढ़े दिल प्रज्वलित होने चाहिए । ये चिंगारियाँ धधकनी चाहिए । मगर इन्हें इकट्ठा कौन करेगा ? मौत का डर नहीं, मगर यदि हमारे बीच कोई चुगलखोर हुआ तो सब कुछ मिट्टी में मिल जाएगा ।


बर्मा की लड़ाई अंग्रेज़ों के अनुमान से काफ़ी ज़्यादा समय चली । जापानियों और आज़ाद हिन्द सेना को चुटकी भर में मसल देंगे यह अंदाज़ ग़लत निकला । आज़ाद हिन्द सेना का हर सैनिक अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ जान की बाजी खेलते हुए लड़ रहा था । उनका जागृत हो चुका स्वाभिमान, ब्रिटिशों के ऊपर का गुस्सा और आज़ादी के प्रति प्रेम - यही उनकी ताकत थी । मार्च से लेकर मई 1944 तक, यानी पूरे तीन महीने आज़ाद हिन्द सेना जीती हुई भूमि पर मजबूती से पैर जमाए खड़ी थी । बारिश, भूख, शत्रु के आक्रमण इनका सामना करतेकरते कम से कम चार हजार सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए, पन्द्रह सौ युद्धबन्दी बनाए गए और वह घनघोर लड़ाई थम गई ।

‘‘आज की खबरें सुनीं ?’’ दास गुरु से पूछ रहा था ।
‘‘सुनी, आज़ाद हिन्द सेना के पन्द्रह सौ जवानों और अधिकारियों को अंग्रेज़ी सेना ने कैद कर लिया है।’’ गुरु की आवाज में निराशा थी ।
‘‘अब आगे क्या करेंगे ?’’
‘‘इन सैनिकों को इंग्लैंड अथवा हिन्दुस्तान ले जाएँगे, युद्ध की अदालत में इन पर मुकदमे चलाएँगे, जाँच का नाटक करेंगे । कुछ को फाँसी पर चढ़ाएँगे । अनेक  को  उम्रकैद  हो  जाएगी ।’’  गुरु  के  शब्दों  में  गुस्सा  था ।  दास  अस्वस्थ  हो गया ।
‘‘मालिकों  के  ख़िलाफ  दण्ड  पेलते  हुए  खड़े  होना - बेईमानी  है ।  गुलामों  को आजादी  का  अधिकार  नहीं  होता ।  स्वतन्त्रता  के  लिए  लड़ने  वाले  उपनिवेशों  के गुलामों    को    साम्राज्यवादी    ब्रिटिश,    इंग्लैंड    के    राजद्रोही    कहेंगे ।’’
‘‘युद्धबन्दी बनाए गए आज़ाद हिन्द सेना के सैनिक सच्चे वीर हैं हम नपुंसक हैं... हिम्मत    हार    चुके...’’    गुरु    अपने    आप    से    पुटपुटा    रहा    था ।

जब   नौसैनिक   हिन्दुस्तान   वापस   आए   तो   परिस्थिति   काफी   बदल   चुकी   थी ।
राज्य  करने  वालों  की  लापरवाही  के  कारण  बंगाल  को  भीषण  अकाल  का सामना   करना   पड़   रहा   था ।   इस   अकाल   में   हजारों   लोग   मौत   के   मुँह   में   समा गए    थे ।    यह    संकट    आसमानी    नहीं    था,    बल्कि    सुल्तानी    था ।

वाइसरॉय लॉर्ड लिनलिथगो इंग्लैंड वापस लौट चुका था । उसके स्थान पर अब  वाइसरॉय  था  लॉर्ड  वेवल । लॉर्ड  वेवल  का  झुकाव  पूरी  तरह  से  लीग  की  ओर था ।
सन्  1942  के  भारत  छोड़ो  आन्दोलन  का  ज़ोर  समाप्त  हो  गया  था ।  जेल में ठूँसे गए नेताओं को छोड़ा जाने लगा था । जापान अभी भी युद्ध कर ही रहा था ।  रणनीतिविशेषज्ञों  का  अनुमान  था  कि  एशिया  में  युद्ध  कम  से  कम  सालभर और चलेगा । अंग्रेज़ हिन्दुस्तान पर अपनी पकड़ ढीली नहीं करना चाहते थे,      इसीलिए चर्चा समिति, योजना आदि का भ्रम पैदा करते हुए वे समय ले रहे थे । आज़ाद हिन्द सेना की स्थापना से जो आशा की किरण दृष्टिगोचर हुई थी वह भी अब धूमिल   पड़   गई   थी ।   बर्मा   में   इकट्ठा   हुए   नौसैनिक   अलगअलग   जहाजों   पर   बिखर गए    थे ।

गुरु  HMIS बलूचिस्तान  पर  आया  था ।  यह  एक  मध्यम  आकार  का  युद्ध पोत  था ।  जहाज़  के सैनिकों  में  अधिकांश  हिन्दुस्तानी  थे ।  अधिकारी  और  दोचार वरिष्ठ सैनिक हिन्दुस्तानी थे । जहाज़ की क्षमता दो सौ सैनिकों की होने पर भी वहाँ   तीन   सौ   सैनिक   थे   और   इसलिए   वहाँ   काफी   भीड़   हो   गई   थी ।   मेस   डेक पर्याप्त   नहीं   थी   और   इस   कारण   कनिष्ठ   सैनिकों   को   काफी   कष्ट   उठाने   पड़ते थे ।    उन्हें    जहाँ    जगह    मिली    उसी    कोने    में    आश्रय    लेना    पड़ता    था ।
गोरे अधिकारियों एवं सैनिकों के लिए अलग राशन, अलग कुक्स, लम्बीचौड़ी   मेस डेक,   बढ़िया सस्ती शराब,   बढ़िया   किस्म   की   सिगरेट्स   की   व्यवस्था थी । हिन्दुस्तान से वसूल किए गए पैसों पर ये गोरे ऐश करते थे । बंगाली भाई  अकाल में झुलस रहे थे । बंगाल की रसद तोड़कर इन साँड़ों को पाला जा रहा था । गुरु को इस बात से बहुत गुस्सा आता, मगर एकाध गुलाम का क्रोध क्या कर सकता था ? जहाज़ का जीवन वैसे भी कष्टप्रद था, परन्तु युद्धकाल में वह और भी भागदौड़ भरा हो गया था । हैंड्स कॉल से - सुबह उठने से – बिलकुल पाइप डाउन - रात को सोने के समय तक भागदौड़ चलती रहती । कभीकभी एक्शन अनाउन्स होता और फिर आधी नींद में जल्दीजल्दी कपड़े पहनते हुए, कमर से बेल्ट कसते हुए भागना पड़ता । पूरी रात आँखों में तेल डाले अँधेरे में कोई चीज नजर तो नहीं आ रही यह देखना पड़ता । उफनते हुए समुद्र में सीसिकहोने पर भी सामने पड़ी बाल्टी में उल्टियाँ करते हुए काम करना पड़ता । मेसेज रिसीव करने पड़ते, ट्रान्समिट करने पड़ते, हर उल्टी के साथ आँतें निकलने को होतीं, माँ याद आती, मगर मुक्ति नहीं थी। गुरु अपने आप से कहता, ''You have Signed your death warrant, now you have no other go.''
इस सब में भी एक उत्तेजना थी, यह जीवन मर्दों का जीवन प्रतीत होता ।

गुरु की ड्यूटी कोस्टल कॉमन नेट पर थी । ट्रैफिक ज़्यादा नहीं था । कॉल साइन ट्रान्समिट हो रही थी । पिछले चौबीस घण्टों में पीठ जमीन पर नहीं टेक पाया था । कल दोपहर को चार से आठ बजे की ड्यूटी खत्म करके जैसे ही वह मेस में आया, वैसे ही Clear lower deck की घोषणा हुई । वह वैसे ही भागते हुए Flag deck पर अपने  Action Station पर वापस आ गया था ।
जहाज़  में बड़ी ही गड़बड़ी हो रही थी । सभी तोपों पर सैनिक तैयार थे । गुरु ने आकाश पर दूर तक नजर डाली । कहीं भी कुछ नजर नहीं आ रहा था ।
शायद हवाई जहाज़ रडार पर दिखाई दिए होंगे, मगर यदि वैसा था तो भी अब तक उन्हें नजर के दायरे में आ जाना चाहिए था । कम से कम Air Raid warning  का सायरन तो बजाना चाहिए था । वह भी नहीं बजा,  र्थात्...
जहाज़ पर बड़ी भगदड़ मची थी । जहाज़ अपना सीधा मार्ग छोड़कर वक्र गति से चल रहा था । सब समझ गए - शायद पनडुब्बी होगी । जहाज़  के ऊपर से दायेंबायें और आगेपीछे डेप्थ चार्जेस फायर किये जा रहे थे । पानी में गहराई तक जाकर डेप्थ चार्जेस का जब विस्फोट होता तो एक पल को पानी का पहाड़ खड़ा हो जाता । ऐसा लगता जैसे पनडुब्बी के अवशेष नजर आएँगे, तेल की तरंगें उठेंगी । मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था । उस विशाल सागर में बलूचिस्तानअचानक जान के डर से घबराए हुए खरगोश की भाँति दौड़ रहा था ।
 ‘‘गुरु,  क्या  सचमुच  में  पनडुब्बी  हो  सकती  है ?’’  गुरु  के  साथ  ड्यूटी  कर रहे    ऑर्डिनरी सीमन राव    ने    पूछा ।
‘‘यह   युद्ध   है ।   यहाँ   छाछ   भी   फूँकफूँककर   पीना   पड़ता   है ।   क्या   भरोसा, हो   सकता      भी   गई   हो   कोई   पनडुब्बी,   जातेजाते   आखिरी   वार   करने   के   लिए ।’’
गुरु    के    जवाब    से    राव    चिन्तित    हो    गया ।
‘‘हम    पनडुब्बी    के    चंगुल    से    निकल    तो    सकेंगे    ना ?’’    राव    ने    अपने    सिर से   कैप   उतारी,   उसके   भीतर   तेल   से   चीकट   हुए   किसी   भगवान   के   फोटो   को   प्रणाम किया    और    आँखें    मूँदकर    कुछ    पुटपुटाने    लगा ।
राव  की  इस  क्रिया  पर  गुरु  को  हँसी    गई ।  वह  कुछ  भी  नहीं  बोला ।
‘‘लगा   दिया   ना   काम   पे ?’’   गुरु   ने   ऊपर   आए   हुए   रडार   ऑपरेटर   से   कहा ।
‘‘बाय  गॉड!  यार,  रडार  पर  दिखाई  दी  थी,’’  जोशी  गम्भीर  स्वर  में  बोला ।
‘‘कोई    चट्टान    या    डूबे    हुए    जहाज़     का    अवशेष    होगा!’’    गुरु    ने    अपना सन्देह व्यक्त    किया ।
‘‘चार्ट  में  ऐसा  कुछ  भी  दिखाया  नहीं  गया  है,  फिर  वह  चीज  लगातार  आगे सरक रही थी ।
‘‘फिर   गई   कहाँ ?’’
‘‘वही   तो   समझ   में   नहीं      रहा ।   अच्छेखासे   चार   मिनट   दिखाई   दी ।   हमारे जहाज़   के  पोर्ट  से  चालीस  डिग्री  के  कोण  पर  करीब  एक  मील  दूर  थी ।  अब  कहाँ गायब    हो    गई    है,    समझ    में    नहीं    आता!”
‘‘अरे,    वह    पनडुब्बी    थी    ही    नहीं!’’    घबराया    हुआ    राव    अपने    आप    को    समझा रहा था । जहाज़  पर तनावपूर्ण वातावरण था । हर कोई जबर्दस्त मानसिक दबाव में   था ।   जिन्हें   समुद्री   युद्ध   का   कोई   अनुभव   नहीं   था   ऐसे   सैनिक   तो   आगे   की फिक्र    में    डूबे    हुए    थे ।
‘‘यदि   पनडुब्बी   टोरपीड़ो   फायर   करे   तो ?... युद्ध   की   ख़बरें,   युद्ध   कथाएँ याद   आर्इं,   जहाज़    का   पूरा   काम   तमाम   हो   जाएगा   पाँचदस   मिनटों   में... और फिर...  जल   समाधि,   नाकमुँह   में   पानी... घुटता   हुआ   दम...’’   कल्पना   भी   असह्य थी ।
‘‘यदि   कोई   लकड़ी   की   पट्टी   हाथ   लग   जाए   तो...’’   चेहरे   पर   हल्कासा समाधान ।
‘‘मगर    कितनी    देर    तैरोगे!’’
‘‘मदद    प्राप्त    होने    तक ।’’
‘‘मिलेगी  मदद ?  उठायेगा  कोई  ख़तरा ?’’  आशानिराशा  में  डाँवाँडोल  होते सवाल ।
‘‘तब  तक  मदद  की  आशा  पर  कलेजा  फटने  तक  उस  पट्टी  पर  तैरने  की कोशिश  करेंगे...  अन्त  में  वही  मौत... जीने  की  भरसक  कोशिश में  लगे पानी  में  डूबे  हुए पिंजरे  के  तार  पर  चढ़  जाने  वाले  चूहे... हम  भी  आखिर  कहाँ  जाएँगे...अन्त    में    वहीं,    मृत्यु    की    शरण    में... अन्त...निराशा    की    विजय...
ब्रिज    पर    अधिकारियों    की    दौड़धूप    चल    रही    थी ।    शत्रु    के    जहाज़ों और पनडुब्बी   की   गतिविधियों   से   सम्बन्धित   सन्देश   बारबार   जाँचे   जा   रहे   थे ।  इंजनरूम में    सीनियर    इंजीनियर    इंजनरूम    के    सैनिक    जहाज़    की    ऑपरेशनल    स्पीड    स्थिर    रखने का  प्रयत्न  कर  रहे  थे ।  सारा  डब्ल्यू.  टी.  ऑफिस  काम  में  व्यस्त  था ।  पन्द्रह  सौ किलो   साइकल्स   फ्रिक्वेन्सी   पर   हेडक्वार्टर   से   सम्बन्ध   स्थापित   किया   गया   था । सांकेतिक    सन्देश    आ    रहे    थे,    जा    रहे    थे ।
व्हील  हाउस  में  क्वार्टर  मास्टर  पसीने  से  तर  हो  रहा  था ।  ब्रिज  के  ऊपर से  निर्देशित  कोर्स  पर  जहाज़   बनाए  रखने  का  प्रयत्न  कर  रहा  था ।  जगहजगह तैनात लुक-आउट्स आँखों में तेल डालकर अँधेरे में देखने की कोशिश कर रहे थे  कि कहीं कोई    चीज    नजर    तो    नहीं        रही ।
ऑपरेटर  की  नजर  लगातार  रडार  पर  थी,  मगर  कहीं  कुछ  दिखाई  नहीं  दे रहा    था ।
छह    घण्टों    के    पश्चात्    आसमान    में    पनडुब्बी    विरोधी    हवाई जहाज़ नजर आए और जहाज़  के ऊपर तैनात सैनिकों में मानो जान पड़ गई । कोई तो था उनकी सहायता  के  लिए  मौजूद ।  बची  हुई  रात  पानी  के  भीतर  पनडुब्बी  को  खोजने  में बीत    गई ।    लुक-आउट्स    रातभर    अपनीअपनी    ड्यूटी    पर    तैनात    खड़े    थे ।
आज   सुबह   आठ   बजे   से   बारह   बजे   तक   की   ड्यूटी ।   रातभर   जागने   के कारण   आँखों   में   जलन   हो   रही   थी ।   नींद   से   पलकें   बोझिल   हो   रही   थीं ।   अभी तक कॉल साइन ही ट्रान्समिट हो रही थी । कॉल साइन रुककर कब मेसेज ट्रान्समिट होगा   इसका   कोई   भरोसा   नहीं   था ।   ग़ाफ़िल होना   घातक   हो   सकता   था – कोई मेसेज  गलत  हो  सकता  था  और  कितने  मेसेज  गुजर  गए  ये  सिर्फ  अगले  मेसेज का    क्रमांक    देखकर    ही    स्पष्ट    हो    सकता    था ।
‘‘एकाध  मेसेज  ग़लत  हो  जाए  तो...कम  से  कम  दसपन्द्रह  दिनों  की...शायद   उससे   भी   ज्यादा...सज़ा...’’
गुरु    सज़ा    से    नहीं    डरता    था,    परन्तु    अकार्यक्षमता    के    लिए    सज़ा,    उसे    नागवार    गुज़रती ।   नींद   भगाने   के   लिए   कभी   वह   मेज   पर   ताल   देता,   यूँ   ही   पैरों   को   हिलाता, बीचबीच   में   खड़ा   हो   जाता ।   ड्यूटी   समाप्त   होने   में   अभी   पूरा   डेढ़   घण्टा   था ।
‘‘बारह   बजे   तक   जागते   ही   रहना   होगा ।   गुलामी   में   पड़े   हुए   हर   गुलाम को जागना    होगा ।    इन    गोरों    से    कहना    होगा,    क्विट    इण्डिया’’
असावधानी  से  उसने  मुँह  खोल  दिया  था,  मगर  फ़ौरन  उसे  इस  बात  का एहसास  हो  गया  कि  वह  जहाज़   पर  है ।  चारों  ओर  सैनिक  हैं ।  ‘‘यहाँ  नारेबाजी करने   से   अंग्रेज़ी   हुकूमत   का कुछ   भी   बिगड़ने   वाला   नहीं   है,   उल्टे   मुझे   ही   कैद हो जाएगी ।’’
‘‘मुझे  चींटी  की  मौत  नहीं  मरना  है ।’’  दूसरा  मन  उसे  सावधान  कर  रहा था ।
थोड़े  से  क्रोध  में  उसने  अपने  सामने  मेसेज  पैड  खींचा  और  उस  पर  लिखने लगा,    ‘‘सारे    जहाँ    से    अच्छा,    हिन्दोस्ताँ    हमारा...।’’
गुरु के कन्धे पर किसी ने हाथ रखा । उसने पीछे मुड़कर देखा वह टेलिग्राफिस्ट आर.के. सिंह था, उससे तीन    बैच सीनियर ।
‘‘क्या    हो    रहा    है ?    देखूँ    तो    क्या    लिखा    है!’’
एक  पल  के  लिए  गुरु  चकरा  गया,  यदि  ये  काग़ज़ आर.के.  के  हाथ  पड गया  तो ?’  यह  सोचते  ही  वह  सँभल  गया ।  पैड  का  काग़ज़  फाड़ने  ही  वाला  था कि आर.के. ने झपटकर उसके हाथों से कागज छीन लिया । गुरु को गुस्सा आ गया । काग़ज़ छीनने के लिए वह आर.के.    पर    दौड़ गया ।
"Take it easy, take it easy!'' हँसतेहँसते आर.के.   ने   गुरु   से   कहा   और उसके    कन्धे    दबाते    हुए    उसे    नीचे    बिठाया ।
''Anything urgent?' ड्यूटी  लीडिंग  टेलिग्राफिस्ट  मदन  आर.के.  से  पूछ रहा था ।
''Nothing Leading Tele... Look at this,'' आर.के.  ने  काग़ज़  उसकी ओर    बढ़ा    दिया ।
मदन   की   नजरें   काग़ज़ पर   टिक   गर्इं ।   करीब   एक   मिनट   तक   वह   आर.के.  से धीमी   आवाज़   में   बात   करता   रहा ।   दोनों   गम्भीर   हो   गए ।   मदन   गुरु   के निकट    आया    और    उसने    कठोरतापूर्वक    उससे    पूछा,    ‘‘यह    तुमने    लिखा    है ?’’
गुरु    खामोश    रहा ।
‘‘जवाब    दो,    चुप    क्यों    हो ?’’
‘‘हाँ   मैंने   ही   लिखा   है,’’   गुरु   ने   धृष्टता   से   कहा   
‘‘अगर  यह  काग़ज़ मैं  कम्युनिकेशन  ऑफिसर  को  दे  दूँ  तो ?  परिणाम  के बारे में सोचा है?’’
‘‘क्या करेंगे ? चाबुक से मारेंगे, नौसेना से निकाल देंगे, पत्थर फोड़ने भेज देंगे । मैं   तैयार   हूँ   यह   सब सहन   करने   के   लिए,’’   गुरु   ने   निर्णयात्मक   स्वर   में   कहा ।
आर.के.    और    मदन    शान्ति    से    सुन    रहे    थे ।
‘‘मैंने कोई अपराध नहीं    किया    है ।    मैं    सैनिक    हूँ    तो    क्या,    पहले    मैं हिन्दुस्तानी हूँ और   हर   हिन्दुस्तानी   नागरिक का कर्तव्य है कि वह ब्रिटिश साम्राज्य के ख़िलाफ़ बगावत   करे ।   और   मैं   इस   कर्तव्य   के   लिए   स्वयं   को   तैयार   कर   रहा   हूँ ।’’   गुरु की    आवाज़    ऊँची    हो    गई    थी ।
‘‘चिल्लाओ    मत ।    चुप    बैठो ।’’    मदन    ने    डाँटा ।
‘‘अब क्यों चुप बैठूँ ?” गुरु चिल्लाया, “ तुमसे एक सच्ची बात कहूँ ? हम सब   गाँ... हैं,   अपनी   माँ   पर बलात्कार   करने   वाले   के   तलवे   चाट   रहे   हैं ।   उसी की    ओर    से    लड़    रहे    हैं ।
आर.  के.  ने  डब्ल्यू.  टी. ऑफिस  का  दरवाजा  अन्दर  से  बन्द  कर  लिया ।
‘‘अरे   क्या   कर   लोगे   तुम   मेरा ?   मैं   डरता   नहीं   हूँ   तुमसे ।   मैं   यहाँ   डब्ल्यू. टी.    ऑफिस    में    नारे    लगाने    वाला    हूँ,    जय–––’’
मदन     ने     पूरी     ताकत     से     गुरु     की     कनपटी     पर     झापड़     मारा     और     चीखा, ‘‘शटअप!   चिल्लाओ   मत!’’   गुरु   की   आँखों   के   सामने   बिजली   कौंध   गई,   ऐसा लगा  जैसे  शक्तिपात  हो  गया  हो,  और  वह  कुर्सी  पर  गिर  गया ।  कितनी  ही  देर वह    वैसे    ही    बैठा    रहा ।
‘‘तुझे    मदन    बुला    रहा    है ।’’    आर.  के.    ने    कहा ।
‘‘किसलिए ?’’   गुरु   ने   थोड़े   गुस्से   से   ही   पूछा ।
‘‘अरे, ऐसे गुस्सा मत करो, देखो तो सही, क्या कह रहा है वह ?’’ आर.के. हँस रहा था । गुरु मदन के सामने खड़ा हो गया । मदन ने एक बार उसकी ओर    देखा    और    कुर्सी    की    ओर    इशारा    करते    हुए    बोला,    ‘‘बैठो ।’’
मदन   ने   इत्मीनान   से   सिगरेट   निकाली   और   पैकेट   उसके   सामने   ले   जाते हुए कहा,   ‘‘लो   दिमाग   ठण्डा   हो   जाएगा ।’’
गुरु    ने    गर्दन    हिलाकर    इनकार    कर    दिया ।
‘‘क्यों ?   पीते   नहीं   हो   क्या ?’’   मदन   ने   उसकी   आँखों   में   देखते   हुए   पूछा।
 ‘‘मूड    नहीं    है ।’’    गुरु    का    गुस्सा    शान्त    नहीं    हुआ    था ।
मदन  ने  अपनी  सिगरेट  सुलगाई,  एक  गहरा  कश  लेकर  समझाते  हुए  गुरु से कहा, ‘‘उस समय की झापड़ के लिए सॉरी! मैंने अपना आपा खोया नहीं था, मगर तुम्हें चुप करने के लिए वह जरूरी था । तुम भावना से विवश होकर चिल्ला रहे थे । अगर बाहर कोई सुन लेता या एकदम कोई अन्दर आ जाता तो मुसीबत हो जाती ।’’
गुरु चुप था । उसे लगा कि मदन अब लीपापोती कर रहा है ।
‘‘अरे, मुझे और आर. के. को भी तुम्हारे जैसा ही लगता है । हमारा देश आज़ाद हो जाए । हमारे हृदयों में भी देशप्रेम की भावना है । हमारे साथ किये जा रहे बर्ताव से हम नाखुश हैं ।’’
गुरु को मदन की बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था । उन दोनों की बातचीत और बर्ताव देखकर वह सपने में भी नहीं सोच सकता था कि ये दोनों भी उसके हमख़याल हैं, उनके दिलों में भी विचारों का ऐसा ही तूफ़ान घुमड़ रहा होगा ।
उसका चेहरा कितना निर्विकार रहता था! गुरु के मन में एक और ही सन्देह उत्पन्न हुआ । कहीं ये दोनों मुझे बहका तो नहीं रहे हैं ? हम भी तुम्हारे ही पंथ के हैं, ऐसा कहकर ज्यादा जानकारी हासिल करने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं ?’ वह सतर्क हो गया ।
‘‘क्या सोच रहे हो ? भरोसा नहीं है ?’’ मदन ने पूछा गुरु ने ठान लिया था कि किसी भी सवाल का जवाब नहीं देगा ।
गुरु को खामोश देखकर मदन मन ही मन हँसा । सिगरेट का एक ज़ोरदार कश लेकर उसने पूछा, ‘‘सुबूत चाहिए तुझे ?’’ सिगरेट की राख ऐॅश ट्रे में झटकते हुए वह उठा । ‘‘मैं सुबूत देता हूँ तुझे ।’’
छत के पास अलगअलग रंगों के तारों का जाल फैला हुआ था । उन तारों के जाल के बीच की खोखली जगह में हाथ डालकर मदन ने कुछ काग़ज निकाले और उन्हें गुरु के सामने डाल दिया ।
गुरु ने उन काग़जों पर नजर डाली और वह अवाक् रह गया । ये क्रान्तिकारियों द्वारा मदन को भेजे गए पत्र थे और दोचार अन्य पर्चे थे ।
‘‘जर्मनी और जापान की सेनाएँ अलगअलग मोर्चों पर पीछे हट रही हैं। शायद इस युद्ध में जापान और जर्मनी को पराजय का मुँह देखना पड़े । आज़ाद हिन्द सेना की भी हार होगी । परन्तु यह पराजय अस्थायी होगी । इस पराजय से हमें अपना धैर्य नहीं खोना चाहिए । स्वतन्त्रता के लिए निडरतापूर्वक लड़ने का एक और मौका ढूँढ़ना होगा । महायुद्ध के कारण अंग्रेज़ी साम्राज्य जर्जर हो चुका है । यदि एक जोरदार धक्का दिया जाए तो उसे धराशायी होने में देर नहीं लगेगी । अंग्रेजी साम्राज्य पर सूर्य कभी अस्त नहीं होताये गर्वोक्ति कोहरे की भाँति हवा में विलीन हो जाएगी । ब्रिटिश साम्राज्य को धक्का देने की सामर्थ्य केवल हिन्दुस्तान के पास है । आज तक स्वतन्त्रता के लिए जो भी आन्दोलन हुए उनसे सैनिक दूर ही रहे हैं । अगले संग्राम में सैनिकों को भी उतरना होगा । नागरिकों के कन्धे से कन्धा मिलाकर अंग्रेज़ों के खिलाफ’ खड़े होना होगा । योग्य समय आते ही सैनिकों को बगावत करनी होगी...’’
और इसी तरह का बहुत कुछ, सैनिकों का खून खौलाने वाला, उस पत्र में था ।
‘‘अब तो विश्वास हुआ ?’’ मदन ने गुरु के हाथ से काग़ज लेकर फिर से छिपा दिये । कुछ देर पहले गुरु के हाथ से जो काग़ज उसने छीना था उसे जला दिया ।
सन्देह की धुमसती आग शान्त हो चली थी ।
‘‘देख, हम सैनिक हैं, हमें सावधान रहना चाहिए । शत्रु हमसे ज़्यादा धूर्त है, बलवान है । आजादी के विचारों वाला तू अकेला नहीं है । जहाज़  पर हमें ज्ञात तीस ऐसे व्यक्ति हैं । तीन सौ सैनिकों के बीच सिर्फ तीस मतलब कुछ भी नहीं । हमें हिन्दुस्तान की आज़ादी चाहिए। इसके लिए हम अपना सर्वस्व बलिदान करने को तैयार हैं। एक चिनगारी भी इस आग को जलाने के लिए पर्याप्त है, परन्तु योग्य समय का इन्तज़ार करना होगा । यह तो अच्छा हुआ कि यह हमारे सामने हुआ यह काग़ज हमारे हाथ पड़ा, अगर किसी और के सामने हुआ होता तो तू अब तक सलाखों के पीछे होता ।’’
‘‘मुझसे गलती हुई!’’ गुरु ने ईमानदारी से कहा - ‘‘मुझसे यह सब बर्दाश्त नहीं हो रहा था । यदि अपनी भावनाएँ व्यक्त न करता तो पागल हो जाता ।’’
''It's all right." मदन उसे समझा रहा था । ‘‘एक तरह से, जो हुआ, सो अच्छा ही हुआ । तेरे जैसे हिम्मत वाले को पाकर हमारे गुट की ताकत बढ़ गई । अब तो मूड है ना ?’’ सिगरेट का पैकेट उसने गुरु के सामने रखा । गुरु ने भी सिगरेट सुलगायी । अब उसे बहुत हल्का महसूस हो रहा था । उसे विश्वास हो गया था कि वह अकेला नहीं है ।


पाँच वर्षों से चल रहा महायुद्ध लाखों लोगों की बलि लेकर समाप्त हो गया । 7 अगस्त को हिरोशिमा पर और 9 अगस्त को नागासाकी पर एटम बम से हमला करके अमेरिका ने युद्ध समाप्त किया । अमेरिका के सामने इंग्लैंड बहुत कमज़ोर सिद्ध हुआ । अन्तर्राष्ट्रीय क्षितिज पर अमेरिका एक महान शक्ति के रूप में उभरा ।
आज़ाद हिन्द फौज के रूप में हिन्दुस्तान को जो आशा की किरण नजर आई थी वह लुप्त हो गई ।
‘‘सुभाष बाबू अब क्या करेंगे ?’’ यह प्रश्न गुरु को सता रहा था । ‘‘सुभाषचन्द्र असली शेर है । और जब तक वह है तब तक आज़ाद हिन्द फौज बनी रहेगी । यदि युद्ध कैदियों और युद्ध में मारे गए सैनिकों को छोड़ भी दिया जाए, तो भी पन्द्रह हजार सैनिक बचते हैं । सुभाष बाबू उन सबको इकट्ठा करेंगे, सैनिकों की संख्या बढ़ाएँगे और बाहर से ही हिन्दुस्तान का स्वतन्त्रता संग्राम जारी रखेंगे ।’’ आर. के. विश्वासपूर्वक कहता ।
‘‘अगर उन्हें युद्धकैदी बना लिया जाए तो ?’’ बीच में ही किसी ने सन्देह व्यक्त किया ।
‘‘यदि उन्हें गिरफ्तार किया जाता है और अन्य युद्धकैदियों की भाँति सजा दी जाती है तो हिन्दुस्तान का हर व्यक्ति सुलग उठेगा । अधिकांश सैनिक बग़ावत कर देंगे । हिन्दुस्तान के स्वतन्त्रता संग्राम के प्रति सहानुभूति रखने वाले हजारों लोग अंग्रेज़ों के ख़िलाफ’ हो जाएँगे । अंग्रेज़ों के लिए यह स्थिति मुश्किल होगी ।’’
मदन परिस्थिति का विश्लेषण करते हुए कहता ।
‘‘समर्पण किया है, हथियार डाले हैं - जर्मनी ने और जापान ने,  ज़ा हिन्द फौज ने नहीं । वे लड़ते ही रहेंगे,’’ गुरु अपने आप को समझाता ।
जब तक नेताजी हैं, तब तक स्वतन्त्रता संग्राम जारी रहेगा इस बारे में किसी की भी दो राय नहीं थी।
गुरु का अकेलापन खत्म हो गया था । उसे आर. के. और मदन जैसे हमख़याल दोस्त मिल गए थे । आर. के. चपटी नाक और काले रंग का था । उसकी बातों में और आँखों में जबर्दस्त आत्मविश्वास था। उसके विचार स्पष्ट होते और वह बड़े तर्कपूर्ण ढंग से उन्हें प्रस्तुत करता। पढ़ने का शौक था उसे, स्मरण शक्ति अद्भुत थी । अपने विचारों का प्रतिपादन वह आक्रामक नहीं, बल्कि विश्लेषणात्मक ढंग से करता है ।
सरदार होने के बावजूद आर. के. मॉडर्न था।रोज़ सुबह साबुन का गाढ़ागाढ़ा फेन चेहरे पर लगाकर वह दाढ़ी बनाता । हर पन्द्रह दिन में बाल कटवाता और जब मूड होता तो सिगरेट के दोचार कश भी लगा लेता ।



उस दिन सुबह से ही आसमान पर काले बादल छाए थे । ठीक से बारिश भी नहीं हो रही थी । वातावरण में बड़ी उमस थी । काम करने के लिए उत्साह ही नहीं था । वातावरण पर छाई उदासी और कालिख किसी अपशगुन की ओर संकेत कर रही थी । सन्देह उमड़ रहे थे ।
लोगों के मन बेचैन थे फिर भी रोज़मर्रा के काम चल ही रहे थे । गुरु की ड्यूटी दोपहर के बारह बजे से चार बजे तक की थी । वह काम पर जाने की तैयारी कर रहा था । खाना लेकर वह मेस में आया। मदन ऐसे बैठा था जैसे विध्वस्त हो चुका हो ।
‘‘क्या रे? काम पर नहीं जाएगा क्या ?’’ गुरु ने पूछा ।
मदन ने एक गहरी साँस छोड़ी । उसका चेहरा उतरा हुआ था । आँखें सूजी हुई लग रही थीं । गुरु के प्रश्न का उसने कोई उत्तर नहीं दिया । मेज़ पर सिर टिकाए वह सुन्न बैठा रहा । गुरु उठकर मदन के पास गया और उसने पूछा, ‘‘अरे, हुआ क्या है, कुछ बता तो सही ?’’
मदन चुप ही रहा । उसके मुख से शब्द नहीं फूट रहे थे । शून्य नज़र से उसने गुरु की ओर देखा । गुरु कुछ भी समझ नहीं पाया । उन पाँचदस सेकण्डों में गुरु के मन में अनेक विचार कौंध गए, ‘‘क्रान्तिकारियों में से कोई पकड़ा तो नहीं गया ? कोई प्रसिद्ध व्यक्ति–––’’
मदन को झकझोरते हुए गुरु ने फिर पूछा, ‘‘अरे, बोल, कुछ तो बोल मैं कैसे समझूँगा ?’’
‘‘हमारा सर्वस्व लुट गया! हम बरबाद हो गए!’’ मदन अपने आप से पुटपुटा रहा था, ‘‘नेताजी गुज़र गए, हवाई अपघात में ।’’
‘‘कुछ भी मत बको । किसने कहा तुझसे ?’’ गुरु ने बेचैन होकर अधीरता से पूछा ।
‘‘मैंने सुना, टोकियो आकाशवाणी के हवाले से खबर दी गई थी, रेडियो पर ।’’
गुरु को ऐसा लगा मानो वज्रघात हो गया है । आँखों के सामने अँधेरा छा गया । शरीर शक्तिहीन हो गया । वह सुन्न हो गया । अब खाने का सवाल ही नहीं था। पोर्टहोल में अपनी थाली खाली करके वह सुन्न मन से बैठा रहा ।
क्वार्टरमास्टर ने बारह घण्टे बजाए ।
‘‘चल उठ! मुँह पर पानी मार और काम पर चल!’’ मदन ने कहा, ‘‘देख, चेहरे पर कोई भी भाव न आने पाए ।’’
वे    मेस    से    बाहर    निकले    तब    उनके    चेहरे    एकदम    कोरे    (भावहीन)    थे ।
डब्ल्यू. टी. ऑफिस पर भी मातम का साया था । रोज़ होने वाला हँसीमजाक, चर्चा   बिलकुल   नहीं   थी ।   गुरु   आज   भी   कोस्टल   कॉमन   नेट   पर   बैठा   था,   मगर काम में बिलकुल भी मन नहीं लग रहा था । हर पल एकएक युग जैसा प्रतीत हो  रहा  था ।  सोचसोचकर  दिमाग  पिलपिला  हो  गया  था  और  मेसेज  रिसीव  करने में    गलतियाँ    हो    रही    थीं ।
‘‘गुरु, सँभालो   अपने   आपको ।’’   रिसेप्शन   में   गलतियाँ   देखकर   गुस्से   में   आते हुए मदन सूचना     दे     रहा     था,       ''Do not Force me to take action against you.''
''I am sorry Leading! गुरु ने जवाब दिया । कुछ देर पहले भावनावश होकर हतोत्साहित हो गया मदन अब एकदम निर्विकार था । गुरु अपने मन को लगाम देने की कोशिश कर रहा था, मगर उसका मन भूतभविष्य में गोते लगा रहा था ।
‘‘अगर नेताजी सचमुच नहीं रहे तो... हिन्दुस्तान की आज़ादी का क्या होगा ? मार्गदर्शक    कौन    बनेगा ?    अँधेरे    में    डूबा    हुआ    भविष्यकाल...’’
दोपहर    तक    नेताजी    की    अपघात    में    मृत्यु    हो    जाने    की    खबर    पूरे    जहाज़ पर फैल गई थी । सभी फुसफुसाहट से बोल रहे थे । सभी के दिल दहल गए थे ।  बेचैन  मन  से  सभी  घूम  रहे  थेमगर  कोई  भी  स्पष्ट  रूप  से  कुछ  कह  नही रहा  था।  हरेक  की  यही  कोशिश  थी  कि  मन  का  तूफान  चेहरे  पर  न  छा  जाए ।
‘‘गुलामी  ने  हमें  इतना  नपुंसक  बना  दिया  है  कि  जिन  नेताजी  ने  मृतवत् हो   चुके   हिन्दुस्तानी   नौजवानों   में   नये   प्राण   फूँके,   उन्हीं   नेताजी   के   निधन   पर   शोक प्रकट  करने  के  लिए  हम  फूटफूटकर  रोने  से  भी  डर  रहे  हैं,’’  गुरु  बुदबुदाया ।
‘‘सही    है    मगर    वर्तमान    परिस्थिति    में,    जब    हिन्दुस्तानी    नौजवान    संगठित नहीं हैं,  तो भलाई इसी में है कि अपनी भावनाएँ प्रकट न की जाएँ । वरना गोरे सावधान    हो    जाएँगे    और–––’’    मदन    ने    जवाब    दिया ।
रात   को   जब   सब   लोग   सो   गए   तो   जहाज़    के   समविचारी   सैनिक   बोट्सवाईन स्टोर्स   की   बगल   के   कम्पार्टमेंट   में   बैठे   थे ।   ये   स्टोर्स   जहाज़    के   अगले   हिस्से   में तीसरी मंजिल पर था । काम के समय को छोड़कर वहाँ अक्सर कोई जाता नहीं था । इसके दो कारण थे । पहला यह कि यह जगह कुछ दिक्कत वाली थी और दूसरा - वहाँ मेस डेक नहीं थी । उस सँकरी जगह में चालीस लोग चिपकचिपक कर  बैठे  थे ।  गुरु  को  इस  बात  का  अन्दाज़ा  भी  नहीं  था  कि  जहाज़   पर  उसके जैसे    विचारों    वाले    इतने    लोग    होंगे ।   
आर.  के.  सिंह    बोलने    के    लिए    खड़ा    हुआ ।
‘‘दोस्तो!   सुभाष   ये   तीन   अक्षर   अन्याय,   गुलामी   और   अत्याचार   के   विरुद्ध विस्फोटकों  से  भरा  हुआ  गोदाम  है ।  जब  तक  हिन्दुस्तान  का  अस्तित्व  रहेगा,  तब तक  सच्चा  हिन्दुस्तानी  इस  नाम  के  आगे  नतमस्तक  होता  रहेगा ।  जिसका  नाम भर लेने से हमारे हृदय में स्वतन्त्रता प्रेम की ज्योति प्रखर हो जाती है, ऐसे इस हिन्दुस्तान  के  सपूत  की  अपघात  में  मृत्यु  होने  की  खबर  आज  सुबह  प्रसारित  की गई   है ।
‘‘नेताजी    नहीं    रहे,    इस    खबर    पर    विश्वास    ही    नहीं    होता ।    नेताजी    सन्    1941 में  कलकत्ता  से  अदृश्य  हो  गए  थे,  वैसे  ही  शायद  इस  समय  भी  अदृश्य  हो  गए होंगे ।     नेताजी     की     मृत्यु     की     अफ़वाह     हिन्दुस्तान     के     स्वतन्त्रता     प्रेमियों     को     हतोत्साहित करने के लिए फैलाई गई होगी । एक दैवी शक्ति रखने वाले जुझारू नेताजी इस तरह  कीड़े की   मौत   नहीं   मर   सकते।   हथियार   डाल   दिये   हैं,   तलवारें   म्यानों में वापस  रख  ली  हैं - जर्मनी  और  जापान  ने ।  आज़ाद  हिन्द  फौज  ने  हथियार  नहीं डाले   हैं ।   यह   महान   सेनापति   और   उसकी   सेना   अंग्रेज़ों   से   लड़ती   ही   रहेगी - अंग्रेज़ी हुकूमत    का    खात्मा    होने    तक ।
‘‘दोस्तो!   जब   हमने   यहाँ   इकट्ठे   होने   का   निर्णय   लिया,   तब   सोचा   होगा कि   शायद   हम   अपने   प्रिय   नेताजी   को   श्रद्धांजलि   देने   के   लिए   इकट्ठा   हो   रहे हैं; मगर   मुझे   ऐसा   लगता   है   कि   हम   सुभाष   बाबू   को   श्रद्धासुमन   अर्पित   करने के लिए योग्य    नहीं    हैं । वे    हिन्दुस्तान    की    स्वतन्त्रता    के    लिए    कटिबद्ध    एक    नरशार्दूल थे  और  हम  हैं  गुलामी  के  नरक  में  सड़  रहे  अकर्मण्य  जीव!  यदि  हमारे  दिल  में सुभाष बाबू के प्रति, उनके कार्य के प्रति प्रेम है तो आइए, हम यह प्रतिज्ञा करें कि उनके द्वारा आरम्भ किए गए कार्य को पूरा करने के लिए हम पूरे जीजान से,   उन्हीं   के   मार्ग   से,   प्रयत्न   करते   रहेंगे ।   जिस   दिन   हम   स्वतन्त्रता   प्राप्त   कर   लेंगेदिल्ली   के   लाल   किले   पर   अभिमानपूर्वक   तिरंगा   फहराएँगे,   उसी   दिन   हम   सच्चे अर्थों   में   सुभाष   बाबू   के   अनुयायी   कहलाने   योग्य   बनेंगे,   उन्हें   श्रद्धांजलि   अर्पण करने    योग्य    हो    पाएँगे ।
‘‘सुभाष बाबू की याद ही स्वतन्त्रता प्राप्ति के कठोर पथ पर हमारा मार्गदर्शन करेगी। दोस्तो! याद  रखो,  सुभाष  बाबू  ने  कहा  था,  अंग्रेज़ों  को  सिर्फ  बाहर  से ही परेशान    करना    पर्याप्त    नहीं    है,    अपितु    हिन्दुस्तान    के    भीतर    भी    उन्हें    हैरान    करना होगा ।आजाद हिन्द फौज देश के बाहर लड़ रही थी । हम आज़ाद हिन्दुस्तानी देश   के   भीतर   ही   उनका   मुकाबला   करेंगे ।   इसके   लिए   हमें   अपने   भाईबन्धुओं को तैयार करना होगा । भूदल और हवाईदल को भी अपने साथ लेना होगा । कम से कम पूरा नौदल (नौसेना दल) ही अग्निशिखा के समय प्रज्वलित हो उठे! यह ज्वाला भड़कने पर हिन्दुस्तान की ब्रिटिश हुकूमत सूखे पत्तों के समान जलकर राख हो जाएगी । काम कठिन है, मगर हमें उसे करना ही होगा। हमारे साथ किया जा रहा सौतेला व्यवहार, गोरों द्वारा कदमकदम पर किया जा रहा अपमान - ये सब अगर रोकना हो तो हमें अपने हृदय पर सिर्फ चार अक्षर अंकित करने होंगे - स्वतन्त्रता’ ;  दोस्तो! यह काम कठिन अवश्य है, मगर यदि हम कमर कसकर लग गए तो मार्ग अवश्य मिलेगा । मुश्किलों के पर्वत चूरचूर हो जाएँगे । हम सफल होंगे । मुझे पूरा विश्वास है कि अन्तिम विजय हमारी ही होगी । हम नेताजी को सम्मानपूर्वक हिन्दुस्तान वापस लाएँगे । इसके लिए शायद हमें अपना सर्वस्व बलिदान करना पड़े । मगर जो आजादी हमें प्राप्त होगी उसके सामने यह बलिदान कुछ भी नहीं होगा’’
आर. के. के  भावावेश में दिये गए, सुलगाने वाले भाषण के पश्चात् एक भयावह शान्ति छा गई । आर. के. पलभर को रुका और उसने सबको आह्वान दिया - ‘‘हम, आज, यहाँ नेताजी को याद करते हुए शपथ लें कि स्वतन्त्रताप्राप्ति के लिए मेरे प्रिय हिन्दुस्तान को गुलामी की जंज़ीरों से मुक्त करने के लिए हम निरन्तर प्रयत्नशील रहेंगे । इस उद्देश्य के लिए वड़वानल प्रज्वलित करेंगे! इस कार्य को करते हुए हमें यदि अपने सर्वस्व का भी बलिदान करना पड़े तो भी हम पीछे नहीं हटेंगे!’’

एक नयी स्फूर्ति, एक नयी जिद के साथ वे सारे उठ गये । मन में एक चिनगारी तो प्रवेश कर चुकी थी । अंग्रेज़ों का बर्ताव इस वड़वानल (अग्नि) को चेताने का काम करने वाला था ।

लम्बे समय तक चला युद्ध समाप्त हो गया और सैनिकों ने चैन की साँस ली । दौड़धूप करके थक चुके जहाज़  बन्दरगाहों पर सुस्ताने लगे । बलूचिस्तानकुछ छोटीमोटी मरम्मत के लिए कलकत्ता आया था ।
‘‘दत्त, ए दत्त!’’ गुरु ने दत्त को पुकारा ।
‘‘कैसे हो भाई ?’’
‘‘बस, चल रहा है । क्या तेरा जहाज़ भी मरम्मत के लिए आया है?’’
‘‘नहीं, यार! मैं आजकल यहीं हुगली में हूँ ।’’
दत्त को देखकर मदन, यादव और आर. के. भी आये । इधरउधर की बातें होने के बाद दत्त ने पूछा ।
‘‘आज    शाम    का    क्या    प्रोग्राम    है ?’’
‘‘कुछ    नहीं    चार    बजे    के    बाद    तीनों    खाली    हैं ।’’    मदन    ने    जवाब    दिया ।
‘‘तो   फिर   डॉकयार्ड   के   बाहर   चाय   की   दुकान   के   पास   साढ़े   चार   बजे   मिलो । थोड़ासा  घूमफिर  आएँगे ।’’  दत्त  ने  सुझाव  दिया  और  तीनों  ने  हाँ  कर  दी ।  ठीक साढ़े    चार    बजे    वे    दत्त    से    मिले । कहाँ   जाएँगे ?’’   मदन   ने   पूछा ।
‘‘आज  मैं  अपने  एक  मित्र  से  तुम्हारा  परिचय  करवाऊँगा ।’’  और  दत्त ने उन्हें   भूषण   के   बारे   में,   भूषण   से   हुई   मुलाकात   के   बारे   में   बताया ।   अब   वे   खिदरपुर की  एक  गन्दी  बस्ती  में  आए  थे ।  वहीं  एक  अच्छे  से  दिखने  वाले  घर  की  कुंडी दत्त  ने  खास  ढंग  से  खटखटाई ।  दरवाजा  खुला ।  सामने  प्रसन्न  व्यक्तित्व  का  एक जटाधारी    खड़ा    था ।    दत्त    ने    भूषण    का    परिचय    करवाया ।
‘‘भूषण,  तुम्हारी  इस  भेस  बदलने  की  कला  की  दाद  देनी  पड़ेगी ।  पलभर तो मैं तुम्हें पहचान ही नहीं  पाया ।’’
‘‘भूमिगत   कार्यकर्ता   को   एक   मँजा   हुआ   कलाकार   भी   होना   पड़ता   है ।’’ भूषण    ने    जवाब    दिया ।
‘‘दत्त  ने  मुझे  आप  लोगों  के  बारे  में  बताया  है ।’’  भूषण  सीधे  विषय  पर आया ।
‘‘आप  जैसे  जवान  खून  वाले  सैनिक  यदि  मातृभूमि  की  स्वतन्त्रता  के  लिए अंग्रेज़ों   के   विरुद्ध   बगावत   करने   को   तैयार   हों   तो   अब   आजादी   का   दिन   दूर   नहीं । मगर     याद     रहे,     ये रक्तरंजित तलवारों का  व्रत है । सर्वस्व का बलिदान भी कभी-कभी अपर्याप्त प्रतीत हो सकता है । आप लोग निश्चित रूप से क्या करने वाले हैं ?’’

आर.  के.  ने  नेताजी  के  अपघात  की  खबर  सुनकर  आयोजित  की  गई  सभा के  बारे  में  और  वहाँ उठाई  गई  शपथ  के  बारे  में  बताया ।  भूदल  और  हवाईदल के    सैनिकों    को    साथ    लेकर    विद्रोह    करने    के    निश्चय    के    बारे    में    बताया ।
‘‘तुम्हारा   मार्ग   है   तो   ठीक,   मगर   वह   आसान   नहीं   है । कम   से   कम   पूरी नौसेना   में   ही   विद्रोह   हो   जाए   तो   यह   एक   बहुत   बड़ा   काम   होगा ।   आप   लोग एक  अच्छे  मुहूरत  पर  यहाँ  आए  हैं ।  आज  ही  एक  भूमिगत  समाजवादी  कार्यकर्ता बैठक  के  लिए  आए  हैं ।  यदि  उनके  पास  समय  है,  तो  हम  उनसे  मार्गदर्शन ले सकते हैं ।’’ भूषण ने उनकी तीव्र इच्छा को देखकर सुझाव दिया और वह कमरे से    बाहर    चला    गया ।  

वह  घर  बाहर  से  तो  अलगथलग  दिखाई  दे  रहा  था,  मगर  भीतर  ही  भीतर वह  दोचार  घरों  से  जुड़ा  था ।  यदि  छापा  पड़  जाए  तो  चारों  दिशाओं  में  भागने के   लिए   यह   सुविधा   बनाई   गई   थी ।   कमरों   को   पार   करते   हुए   वे   एक   बड़े से कमरे  में  आए ।  मद्धिम  प्रकाश  के  कारण  कमरे  का  वातावरण  गम्भीर  प्रतीत  हो रहा  था ।  कमरे  में  दीवार  पर  सुभाषचन्द्र  बोस  की  एक  बड़ीसी  ऑईल  पेंटिंग लगी  थी ।  उसी  की  बगल  में  राजगुरु,  भगतसिंह,  वासुदेव  बलवंत  फड़के  जैसे  कुछ क्रान्तिकारियों    की    तस्वीरें    थीं ।
कमरे    में    एक    व्यक्ति    बैठा    कुछ    लिख    रहा    था ।
‘‘जय हिन्द!’’    दत्त    ने    अभिवादन    किया ।
‘‘जय हिन्द!’’ गर्दन उठाते हुए उस व्यक्ति ने अभिवादन स्वीकार किया ।
पहली  ही  नजर  में  उस  व्यक्ति  का  गोरा  रंग,  तीखे  नाकनक्श,  भेद  लेती हुई आँखें,    काले बाल और    चौड़ा    माथा    प्रभावित    कर    गए ।
दत्त  ने  उस  क्रान्तिकारी  से  पहले  गुरु  का  परिचय  करवाया ।  गुरु  ने  हाथ जोड़कर   नमस्ते   कहा ।
‘‘नहीं,  साथी,  हम  गुलामी  की  जंजीरों  में  जकड़े  हिन्दुस्तान  के  सैनिक  हैं । हिन्दुस्तान    को    आजाद    करने    की    हमने    कसम    खाई    है ।    स्वतन्त्र    हिन्दुस्तान    ही    हमारा लक्ष्य   है ।   इस   लक्ष्य   का   सदैव   स्मरण   दिलाने   वाला   अभिवादन   ही   हमें   स्वीकार करना  चाहिए ।’’  उसकी  आवाज  में  मिठास  थी,  सामने  वाले  को  प्रभावित  करने की सामर्थ्य    थी ।
‘‘आज इस बात की आवश्यकता है कि आप, सैनिक, स्वतन्त्रता के लिए विद्रोह   करें । क्योंकि चर्चिल   की पराजय   के   पश्चात्   प्रधानमन्त्री   पद   पर   ऐटली भले ही आ गए हों, फिर भी हिन्दुस्तान को सम्पूर्ण स्वतन्त्रता देने के मसले पर मतभेद होंगे । चर्चा, परिचर्चा आदि का चक्र चालू रखकर स्वतन्त्रता को स्थगित किया   जाता   रहेगा,   या   सम्पूर्ण   स्वतन्त्रता      देकर   आंशिक   स्वतन्त्रता   पर   समझौता होगा । अंग्रेज़ी    व्यापारियों     को     बेइन्तहा     सहूलियतें     दी     जाएँगी ।     मुसलमानों     को भड़काकर      हिन्दुस्तान के विभाजन का षड्यन्त्र रचा जाएगा । अंग्रेज़ अपनी इच्छानुसार आजादी  देंगे ।  ऐसी  परिस्थिति  में  अंग्रेज़ों  पर  दबाव  डाला  जाना  चाहिए,  और  यह काम    सैनिक    ही    कर    सकते    हैं ।’’
‘‘क्या  आप  ऐसा  नहीं  सोचते  कि  महात्मा  गाँधी  का  अहिंसा  तथा  सत्याग्रह का  मार्ग  हिन्दुस्तान  को  स्वतन्त्रता  दिलवाएगा ।’’  आर.  के.  ने  बीच  ही  में  प्रश्न पूछ लिया ।  
 ‘‘मेरे  मन  में  महात्माजी  एवं  उनके  मार्ग  के  प्रति  अतीव  श्रद्धा  होते  हुए  भी, मैं  नहीं  सोचता  कि  इस  मार्ग  से  आजादी  मिलेगी ।  अंग्रेज़ों  को  यदि  इस  देश  से निकालना  हो  तो  उनकी  हुकूमत  की  नींव  को  नष्ट  करना  होगा ।  सन्  1942  के आन्दोलन   के   कारण   यह   हुआ   नहीं ।   यदि   अंग्रेज़   यहाँ   टिके   हुए   हैं,   तो   केवल   सेना के  बल पर;  उनका  यह  आधार  ही  धराशायी  हो  जाए  तो  अंग्रेज़  यहाँ  टिक  नही पायेंगे । सैनिकों के छुटपुट आन्दोलन होते हैं और उन्हें दबा भी दिया जाता है । अब  आवश्यकता  है  एक  बड़े  विद्रोह  की ।  तीनों  दलों  के  विद्रोह  की ।  कम  से  कम किसी   एक   दल    के   विद्रोह   की ।   तुम   लोग   इसका   आयोजन   करो ।   हम   तुम्हारी   मदद करेंगे । मिलते     रहो । विचारों  के आदानप्रदान से ही आगामी कार्य की दिशा निश्चित होगी ।’’    उस    नेता    ने    जवाब    दिया ।    मुलाकात    खत्म  होने  की    यह    सूचना    थी ।
आर.  के.  ने  भूषण  से  पूछा,  ‘‘इनका  नाम  क्या  है ?  कौन  हैं  ये ?’’
 जवाब में  भूषण  हँस  पड़ा,  ‘‘पहली  ही  मुलाकात  में  ये  सब  कैसे  मालूम  होगा ?  वह  शेर हैं । हम उन्हें शेरसिंह के नाम से ही जानते हैं । मुझे लगता है कि इतना परिचय काफी    है ।’’
एक    नयी    चेतना    लेकर    वे    वहाँ    से    बाहर    निकले ।

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Vadvanal - 23

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