गुरु, मदन, खान
और दत्त बोस की गतिविधियों पर नजर रखे हुए थे । वह कब बाहर जाता
है, किससे मिलता
है, क्या कहता
है । यह सब मन ही
मन नोट कर रहे थे ।
‘‘बोस आज
दोपहर को पाँच
बजे बाहर गया है
।’’ सलीम कह
रहा था ।
‘‘जेकब उसके
साथ है । उनकी
बातचीत से यह
पता चला है
कि दोनों मेट्रो में
सिनेमा देखेंगे और
कैंटीन में खाना
खाकर ही वापस
लौटेंगे ।’’
‘‘मतलब, बोस
रात के करीब
दस बजे के
बाद वापस आएगा ।’’ दत्त
ने अनुमान व्यक्त किया ।
‘‘देखें, इसका
फायदा उठा सकते
हैं क्या ?’’
दत्त
ने गुरु, मदन, सलीम, दास
को इकट्ठा करके
रात के ‘ऑपरेशन कम्बल परेड’ की
योजना समझाई ।
रात
को सोने का
समय हुआ । ‘ऑफिसर ऑफ
दी डे’ का
राउण्ड पूरा हुआ ।
बोस
अभी तक वापस
नहीं लौटा था ।
रात के ग्यारह
बज चुके थे ।
बैरेक के सारे सैनिक नींद के आगोश
में समा चुके थे, मगर दत्त, गुरु, मदन, सलीम
और दास अभी तक
जाग रहे थे ।
उन्हें ज्यादा देर
तक राह नहीं
देखनी पड़ी ।
बोस
को आते देखकर
दत्त ने इशारा
किया और हरेक
ने अपनी–अपनी
पोज़ीशन पकड़ ली । सलीम
मेन स्विच के
पास खड़ा हो
गया । दास और
गुरु कम्बल लेकर तैयार
हो गए । मदन
और खान ने
लाठियाँ सँभाल लीं ।
बोस बैरेक में घुसा
तभी लाइट चली
गर्ई । दास और
गुरु आगे बढ़े ।
उन्होंने बोस पर
कम्बल लपेटा और एक
पल की भी
देरी किये बिना
मदन और खान
ने बोस पर
लाठियाँ बरसाना शुरू कर
दिया जैसे किसी
साँप को मार
रहे हों । ये
सब पाँच मिनट से
भी कम समय
में निपटाकर, अँधेरे
का फायदा उठाते
हुए वे अपनी–अपनी
कॉट पर जाकर
सोने का नाटक
करने लगे ।
बोस
के शरीर पर
लाठियों के इतने
जबर्दस्त घाव पड़े
थे कि अगले
दस दिनों तक वह
अस्पताल में पड़ा
रहा । अस्पताल में
ही उसे एक
टाइप किया हुआ ख़त
मिला था, जिसमें
लिखा था, ‘‘हमारे
झंझट में न पड़ना, अगर
ऐसा किया तो जान
से हाथ धो
बैठोगे । परसों तो
तुम्हें सिर्फ एक
झलक दिखाई थी ।’’
''I Shall see the bastards.'' बोस
उससे मिलने आए जेकब से
कह रहा था । ‘‘मुझे
कुछ अन्दाजा तो
है कि मुझे
मारने वाले कौन थे, मगर
सुबूत मिलना मुश्किल है इसीलिए मैं चुप हूँ । But I tell you, Shall teach
them a good lesson.''
“मुझे
उनके नाम बताओ ।
मैं पकड़ता हूँ
उन्हें ।’’ जेकब ने
सलाह दी ।
''No, No! मैं
जो सबक उन्हें
सिखाना चाहता हूँ, वह
तुझे नाम बताकर नहीं
सिखा सकूँगा । मैं
उन्हें जिन्दगी भर
के लिए सबक
सिखाऊँगा । तू सिर्फ़ देखता रह ।’’ बोस
ने कहा ।
बोस
के ख़तरनाक दिमाग
में क्या चल
रहा है यह
जेकब समझ ही नहीं
पाया ।
सुबह
के सात बजे
थे । हमेशा की
तरह नौसेना के
जहाजों पर और
बेस पर सफाई का काम
चल रहा था । ‘ब्रेकवाटर’ में
खड़ा जहाज़ ‘जमना’ भी अपवाद
नहीं था । ‘जमना’ के ‘फॉक्सल’ और ‘क्वार्टर डेक’ पर
खारा पानी डालकर
पूरे डेक को भिगोया
गया । दो सैनिकों
ने उस पर
सफेद, बिलकुल महीन
बालू बिछाई । सैनिकों ने
डेक घिसने के
लिए होली स्टोन - सफेद पत्थर - हाथ में
लिये और बालू
की सहायता से डेक घिसने लगे । डेक घिसने वाले सभी हिन्दुस्तानी, सीमन
ब्रांच के थे । गोरे सैनिकों
को इस सफाई
के काम से
छूट थी । उन्हें
सिर्फ अपनी मेस की
सफाई करनी पड़ती
थी ।
क्वार्टर
डेक का ऑफिसर
स. लेफ्टिनेंट मार्टिन
क्वार्टर डेक की
सफाई पर व्यक्तिगत रूप से नजर रखे
हुए था । ''Come on scrub it properly. Hey, you put more sand---'' उसकी चिल्लाचोट
जारी थी । सैनिक
उसकी ओर ध्यान न
देते हुए अपना–अपना काम
कर रहे थे ।
‘‘ए, तूने
काम क्यों रोक
दिया!’’ बीच ही
में उठकर खड़े
हुए नाथन पर दौड़ते हुए मार्टिन
चिल्लाया ।
‘‘सर, पैर
में गोला आ
गया–––’’
नाथन
की गर्दन पकड़ते
हुए मार्टिन ने
उसकी कमर में
लात मारी और पूछा, ‘‘निकल
गया गोला ? कामचोर
साले, पैरों में गोले आते
हैं! तुम्हारे पैर के
गोले नीचे से
बाहर निकालना चाहिए, चल
डेक घिस!’’ नीचे
बैठे नाथन को
घुटने से धकियाते हुए
उसने कहा ।
मार्टिन के इस धृष्ट व्यवहार से डेक पर सफ़ाई के
काम में लगे सभी सैनिकों को गुस्सा आ गया । मगर वे यह नहीं समझ पा रहे थे कि करना
क्या चाहिए ।
एबल
सीमन राठौर की
आँखों में आग थी
। डेक
घिसने वाला पत्थर
लेकर वह खड़ा हो
गया ।
‘‘अब तुझे
क्या हुआ ?’’
राठौर की
ओर देखते हुए
मार्टिन ने पूछा ।
‘‘मेरे भी
पैरों में गोले
आ गए हैं ।’’ राठौर
फुफकारा । उसने मन
ही मन निश्चय कर लिया था । परिणाम
चाहे जो हो जाए, यदि मार्टिन ने उस पर हाथ उठाया तो
उसका सिर फोड़
दूँगा ।
राठौर की आँखों में उतर आए क्रोध और उसकी आवाज से बरस रहे आह्वान को भाँपकर
मार्टिन मन में डर गया था ।
वह दूर ही
से चिल्लाया,
‘‘बस, बहुत
हो गए नखरे । काम कर । मुझे डेक आईने जैसी चमकती मिलनी चाहिए । याद रखो
जब तक वैसी
नहीं हो जाती, मैं
तुम लोगों को
छोड़ूँगा नहीं ।’’
मार्टिन
ने उस दिन ‘सिक्युअर’ के
बाद भी करीब–करीब
पन्द्रह मिनट और डेक
रगड़वाई, तभी उन्हें
छोड़ा ।
ब्रेकफास्ट
के समय ‘सीमन’ मेस
में मार्टिन द्वारा
हिन्दुस्तानी सैनिकों के साथ
किए गए इस
बेहयाईभरे और अपमानास्पद
बर्ताव की चर्चा
हो रही थी ।
‘‘इस मार्टिन
साले की तो
खूब धुलाई करनी
चाहिए ।’’ नाथन ने कहा
।
‘‘अब बहादुरी
दिखा रहा है ।
उस समय क्यों
चुप था ?’’ राठौर
ने पूछा ।
‘‘अरे, सिर्फ
उसी को नहीं, बल्कि
हममें से हरेक को ऐसा ही
लग रहा था । मगर
यह ख़याल, कि
हम अकेले हैं, हमारे
पैर पीछे खींच
रहा था ।’’ अजित सिंह
ने अपनी मजबूरी
बताई ।
‘‘ये व्यथा
तेरे अकेले की
ही नहीं है, अजित! ये
हम सबकी व्यथा
है । एक साथ उठते–बैठते हुए
भी हम एक–दूसरे से
दूर–दूर
ही हैं । हमारा
आत्मविश्वास ही समाप्त हो
गया है । हमें
एक होना ही
पड़ेगा । हमारे आत्मसम्मान
की रक्षा करनी ही
होगी, वरना रोटी के
एक टुकड़े के
लिए पैर चाटने
वाले कुत्ते से
हमारी परिस्थिति अलग नहीं
होगी!’’ राठौर तिलमिलाहट से
बोल रहा था ।
मेस में उपस्थित उसके सहकारियों
को यह सब
समझ में आ
रहा था, मगर
वास्तव में करना
क्या है, यह ध्यान
में नहीं आ
रहा था ।
‘तलवार’ में 30 नवम्बर
की रात को
ड्यूटी कर रहे
सैनिकों को रोज़
बुलाया जाता था । कभी
उन्हें सजा दी
जाती, कभी उल्टे–सीधे सवाल
पूछे जाते । मगर
हाथ कुछ भी नहीं
आ रहा था ।
बोस के साथ
की गई मारपीट
की जानकारी कोल एवं
स्नो, दोनों को
मिल गई थी ।
कोल को पूरा
यकीन था कि
मारपीट करने वाले और 30
नवम्बर को पूरी बेस में नारे लिखने वाले एक ही थे । मगर बोस कुछ कहने
को तैयार ही
नहीं था । उसे
खुद को ही कुछ भी
समझ में नहीं
आया था तो वह औरों को क्या बताता!
‘तलवार’ के अन्य सैनिकों के दिमाग में यह बात आ गई थी
कि क्रान्तिकारी सैनिक सीधे–सादे नहीं
हैं। उनके पास
ज़बर्दस्त ताकत है ।
‘‘ऐसे, बाँझ की तरह, कब तक बैठे
रहेंगे ?’’ दत्त पूछ
रहा था ।
‘‘कुछ तो
करना चाहिए । इन
गोरों को फिर
से छेड़ना चाहिए ।’’
‘‘मुझे
भी बिलकुल ऐसा ही लग रहा है । कोल, स्नो
तथा अन्य गोरे अधिकारियों का ख़याल
है कि 1 दिसम्बर
की करतूत नौसेना
छोड़कर जाने वाले सैनिकों
की थी । उनके
बाहर निकल जाने
के कारण, वे
इनकी पकड़ में
नही आए और अपने इस तर्क के पक्ष में वे यह दलील देते हैं कि पिछले पन्द्रह–बीस
दिनों में किसी भी घटना के घटित न होने के पीछे यही कारण है । उनकी नींद हराम करनी
ही चाहिए ।’’
मदन
दत्त की राय
से सहमत था ।
‘‘मगर इस
बार क्या करेंगे ?’’
‘‘पिछली बार
की ही तरह
दीवारें रंगेंगे ।’’
‘‘नहीं, इसमें
बहुत समय लगता
है । बेहतर होगा
कि हम शेरसिंह
की सलाह के मुताबिक पर्चे
चिपकाएँ ।’’
‘‘ठीक है;
मगर इस बार ठेठ ऑफिसर्स के क्वार्टर्स
पर भी पर्चे
चिपकाएँगे । कोल एण्ड कम्पनी
को जबर्दस्त धक्का
देंगे ।’’
‘‘ठीक है;
मैं कल ही रात को सबको
इकट्ठा करता हूँ ।’’
इस निर्णय के अनुसार अगली रात को सलीम, दास, खान, गुरु
और दत्त बरगद के पेड़
के नीचे इकट्ठा
हुए । दत्त ने
अपनी योजना बतार्ई ।
‘‘मगर यह
सब करेंगे कब ?’’ सलीम
ने पूछा ।
‘‘मेरा ख़याल
है कि 31
दिसम्बर की रात
इस काम के
लिए उचित है ।
आने
वाले नये साल
का स्वागत बड़े
उत्साह से किया
जाएगा । शराब के
ड्रम के ड्रम खाली
होंगे । गोरे अधिकारी
अपनी नाजुक, सुडौल
मेमों को लेकर
और ज़्यादा मदहोश होकर पैर टूटने तक नाचेंगे । क्योंकि इस वर्ष की 1
जनवरी का महत्त्व ही कुछ
और है । सन् 1939 में
आरम्भ हुआ महायुद्ध, पूरी
दुनिया को अपनी लपेट
में लेकर पूरे
छह वर्षों बाद
इंग्लैंड के गले
में जयमाला पहनाकर शान्त हो
चुका है । मेरा
ख़याल है कि
उस दिन ऑफिसर
ऑफ दि डे
को छोड़कर अन्य कोई
भी गोरा सैनिक
अथवा अधिकारी होश
में नहीं होगा ।
इसलिए मुझे ऐसा लगता
है कि 31
दिसम्बर की रात
इस काम के
लिए योग्य है ।’’ खान ने
सुझाव दिया ।
खान
के सुझाव को
सबने मान लिया
और 31 दिसम्बर
की रात को
हंगामा करने का निर्णय
लिया गया ।
‘‘इस
बार हम अपना
ध्यान ऑफिसर्स मेस, ऑफिसर्स
क्वाटर्स, सिग्नल
स्कूल, हिन्दुस्तानी सैनिकों
की मेस, महिला सैनिकों की
बैरेक्स इन स्थानों
पर केन्द्रित करेंगे । दो–दो
का गुट बनेगा ।
रात के एक
बजे के बाद
बाहर निकलेंगे और केवल
एक घण्टे में
काम पूरा करके
वापस लौटेंगे । किसी
भी तरह का
ख़तरा मोल नहीं लेंगे ।
इस बात का
पूरा ध्यान रखेंगे
कि पकड़े न
जाएँ । खान और गुरु
गुटों का निर्णय
करेंगे । और हर
गुट को अपना–अपना
कार्य क्षेत्र बताएँगे ।’’
दत्त
ने कार्यक्रम की
रूपरेखा बताई ।
‘‘मैं पर्चे
मँगवाने का इन्तजाम
करता हूँ ।’’
मदन
ने ज़िम्मेदारी उठाई ।
‘‘पर्चे और
पोस्टर्स लॉकर में
या बैरक के
आसपास नहीं रखेंगे, बल्कि ‘तलवार’ के उत्तर की तरफ वाली करौंदों वाली जाली मे
रखेंगे । ये गट्ठे अलग–अलग
होंगे। उन पर
नम्बर लिखे होंगे ।
गुटों को नम्बर
दिए जाएँगे । काम पर निकलने से पहले, नियत
समय पर ये गट्ठे वहाँ लेकर जाना होगा ।’’ खान ने सूचनाएँ
दीं ।
31 दिसम्बर
की रात को
बेस में, विशेषकर
ऑफिसर्स मेस और
ऑफिसर्स क्वार्टर्स वाले भाग
में बड़ी धूमधाम
थी । नये साल
का स्वागत नाजुक, सुडौल
गोरी मैडम्स और वैसी
ही नशीली शराब
के साथ करने
की तैयारी पूरी
हो गई थी। ऑफिसर्स मेस और बॉल–डान्स हॉल को रंग–बिरंगे
फूलों की मालाओं से सजाया गया था ।
छतों पर काग़ज की
पताकाएँ और गुब्बारे लगाए
गए थे । बाहर
की ओर टिमटिमाती दीपमालाएँ थीं । हिन्दुस्तानी
स्टुयुअर्ड्स की भागदौड़ जारी थी । ऑफिसर्स मेस में अंग्रेज़ी हुकूमत
का ऐश्वर्य लबालब
भरकर बह रहा था
। सोने
का मुलम्मा चढ़ी प्लेट्स, काँटे, चमचे, गिलास... सभी कुछ तरतीब से रखा गया था । फर्श पर कीमती कालीन
बिछा था । खास 31 दिसम्बर
के आयोजन के
लिए एक सौ साल
पुरानी फ्रेंच रॉयल
ह्विस्की के ड्रम
मँगाए गए थे ।
जैसे ही रात
के नौ बजे, गोरे अधिकारी अपनी
गोरी–गोरी, ऊँची
मैडमों को लेकर
आने लगे ।
‘‘आज तो
गोरे सैनिकों के
ठाठ हैं । क्या
बढ़िया सजाई गई है मेस और
उनकी बैरेक्स । चारों ओर बस
जगमगाहट है ।’’
सलीम ने
कहा ।
‘‘मेस में
ही ‘बार’ खोला
गया है उनके
लिए, कैंटीन से
तो चढ़ाकर आ ही रहे हैं । मगर मेस में दो पेग्स दिये जा
रहे हंै । उनके लिए आज ‘ओपन गैंग वे’ हैं ।
कभी भी जाओ, कभी
भी आओ! ठाठ
है ।’’ दास ने
जानकारी दी ।
‘‘अरे, ठीक
ही तो है ।
महायुद्ध में जीते
हैं वो!’’
‘‘उनकी
विजय में तो
जैसे हमने कोई
मदद ही नहीं
दी!’’
‘‘हम ठहरे
गुलाम! गुलामों के लिए हर
दिन खपने के
लिए ही होता
है ।’’ गहरी साँस
लेते हुए
सलीम ने कहा ।
‘‘ठीक कह
रहे हो । आज
दोपहर को हमें
बड़ा खाना दिया
गया । बस नाम ही
अलग था... बाकी था
तो वही... रोज़ ही
का खाना, एक
पापड़ और स्वीट डिश
के नाम पर
पनीली, बिना शक्कर
की चावल की खीर और
उसका नाम था ‘पायसम्’ ।
‘‘आज
की डेली ऑर्डर देखी ? उस पर किसी ने BARA
KHANA को BURA KHANA
कर दिया
था ।’’
सलीम
की इस टिप्पणी
पर दास खिलखिलाकर
हँस पड़ा ।
बारह
बज गए । सेकण्ड की
सुई ने बारह
के अंक को
पार किया और
गार्डरूम का घण्टा
टोल देने लगा । बन्दरगाह
में खड़े जहाजों
के कर्णकटु भोंगे
बजने लगे । बॉलरूम
में बैंड ने एक
मिनट के लिए
फॉक्सट्रॉट की धुन
रोक दी और
एक ही कोलाहल हुआ । खाली जाम भरे गए । नयी धुन पर
नृत्य होने लगा । बीच में ही अचानक बॉलरूम
अँधेरे में डूब
जाता और गोरी
मैडमों की सुरीली
चीखें वाद्यों के
शोर में भी स्पष्ट
सुनाई देतीं ।
रात
का एक बज
गया । हिन्दुस्तानी सैनिकों
की बैरक में
खामोशी थी, फिर भी मदन, गुरु, दत्त, सलीम, दास
और खान जाग
ही रहे थे । बॉलरूम से वाद्य–वृन्द
की आवाजें साफ सुनाई दे रही थीं । मदन और गुरु ने बॉलरूम तथा ऑफिसर्स मेस में
ड्यूटी कर रहे सैनिकों जैसा - नंबर सिक्स ए - चढ़ाया और वे दोनों बाहर निकले । इसके
दस मिनट बाद
सलीम तथा दत्त
और अन्त में
दास और खान की
जोड़ी बाहर आई ।
उन्होंने करौंदे की
जाली से पोस्टर्स
का गट्ठा और
लेई की पुड़िया ले लिये ।
‘‘चलो, आज किस्मत हम पर मेहरबान है । देख, चारों ओर कितना सन्नाटा है ।’’
ऑफिसर्स मेस
के निकट आकर
सलीम ने दत्त
से कहा ।
‘‘सब शराब
पी रहे होंगे, घोड़ों
जैसे । मुफ्त में
मिल रही है
ना!’’
‘‘और साथ
में हैं गोरी–गोरी मैडम, मतवाले
हो रहे होंगे, बेहोश
हो गए होंगे ।’’
‘‘देख इस
सबके बावजूद हमें
सावधान रहना होगा ।
तू नजर रख
और मैं दनादन पोस्टर्स चिपकाता हूँ । पहले ऑफिसर्स मेस पर
लगाएँगे ।’’ दत्त ने
सलीम को होशियार करते
हुए अपनी योजना
बताई । दत्त लपककर
मेहँदी की बागड के
पीछे गया । आठ–दस
पोस्टर्स पर लेई
पोती और अँधेरे
हिस्से में जल्दी–जल्दी
उन्हें चिपका दिया ।
‘‘बस, यहाँ
इतने ही काफ़ी हैं ।
अब ऑफिसर्स क्वार्टर्स
की ओर चलते
हैं । पहले एक–दो चक्कर
लगाकर थोड़ा अन्दाजा
लगाते हैं, फिर
काम शुरू करेंगे ।’’ दत्त ने
कहा ।
‘‘कोई आ
रहा है,’’ सलीम
ने ऑफिसर्स क्वार्टर्स
के पास चक्कर
लगाते हुए दत्त को सावधान किया ।
दोनों
एक पेड़ के
पीछे छिप गए ।
स. लेफ्टिनेंट जोन्स एक
कमसिन हसीना को बगल में दबाए
लड़खड़ाते हुए चल रहा था । उसका ध्यान सिर्फ उस हसीना के गोरे
मुख की ओर
था और वह
उसे अधिकाधिक अपने
निकट खींचने की कोशिश
कर रहा था ।
दत्त और सलीम
ने राहत की
साँस ली और
अगले पन्द्रह–बीस
मिनटों में जल्दी–जल्दी अपना
काम निपटा दिया ।
जब
वे बैरेक में
वापस लौटे तो
उनके चेहरों पर
ऐसी प्रसन्नता थी मानो
औरंगजेब की छावनी
से तम्बू के
गुम्बद काट कर
ले आए हों ।
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